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भगवान् महावोस
में उपलब्ध होता है, यह भी मेरे इस कथन की पुष्टि का एक
प्रमाण है
जैन-धर्म चाहे जितना ही प्राचीन हो पर यह निश्चय है. कि उसे यह विशिष्ट रूप महावीर के समय से ही प्राप्त हुआ है, और इसी विशिष्ट रूप पर से हमें उसकी तुलनात्मक परीक्षा करना है। जैन-धर्म का मुख्य कार्य नास्तिकवाद तथा अज्ञेयवाद को निस्तेज करके ब्राह्मणीय विधि विधानों में घुसी हुई कर्मकाण्डता को निःसत्व कर उसे पीछे हटाना है, यद्यपि बुद्धधर्म ने भी इस कार्य को किया और जैन-धर्म की अपेक्षा उसका प्रचार भी अधिक हुआ, तथापि भारतवर्ष के लिये जैन-धर्म ही अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसी के कारण दूसरे धर्मों में भी यह प्रतिक्रिया शुरू हुई ।
पर जैन धर्म का वास्तविक महत्व इससे भी अधिक एक दूसरी बात में है, इस एक ही लक्षण के द्वारा जैन-धर्म की इतर धर्मों से विशेषता बतलाई जा सकती है। __ प्रत्येक धर्म साहित्य के खास कर तीन प्रधान अंग होते हैं, भावनोद्दीपक पुराण, बुद्धिवर्द्धक तत्वज्ञान, और आचारवर्द्धक कर्म-काण्ड । कई धर्मों में बहुधा विधिविधात्मक कर्मकाण्ड की महत्ता बढ़ जाने से उसके शेष दो अंग कमजोर हो जाते हैं। किसी धर्म में भावनोद्दीपक पुराणों की लोकप्रिय कथाओं का महत्व बढ़ जाता है, तो तत्वज्ञान का अङ्ग कमजोर हो जाता है, पर जैन-धर्म एक ऐसा धर्म है जिसमें सब अङ्ग बराबर समान गति से आगे बढ़ते हुए नजर आते हैं । प्राचीन ब्राह्मण धर्म तथा बौद्ध-धर्म में बौद्धिक अङ्गों का निष्कारण स्तोम मचाया गया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com