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भगवान् महावीर
में से निकाल कर स्वर्ग तथा नर्क सम्बन्धी कल्पनामय मानवातीत सृष्टि में ले जाती है।
आर्य लोगों से आने के पूर्व जो जातियाँ इस देश में बसती थीं, उनके मूल धर्म का पूरा पता नहीं चलता, तथापि आधुनिक लौकिक धर्म-सम्प्रदाय और प्राचीन धर्म-साहित्य के तुलनात्मक मनुष्य-शास्त्र की एवं प्राचीन अवशेषों की सहायता द्वारा सूक्ष्म निरीक्षण करने से उस धर्म की बहुत सी बातों का पता लग सकता है, इस सूक्ष्म निरीक्षण से यह सिद्ध होता है कि पूर्व भारत में कम से कम दो विशिष्ट जाति के धर्म थे। ये दोनों वर्ग या तो जीव देवात्मक थे या एक जीव देवात्मक और दूसरा जड़देवात्मक था । जड़ देवात्मक मत का प्रादुर्भाव कुछ गूढ़ कारणों से पैदा हुई क्षुब्धावस्था में उत्कट भक्ति का पर्यवसान उन्माद में अथवा आनन्दातिरेक में होकर हुआ।
इसके अतिरिक्त जो जीव देवात्मक स्वरूप का वर्ग था, उसमें वैराग्य एवं तपस्वीवृत्ति का सम्बन्ध था । इन दो खास तत्वों के अनुषङ्ग से मूल आर्य-धर्म का विकास हुआ और उसमें से अनेक पंथ और धर्म-शाखाएं प्रचलित हुई ।
ईसा से करीब आठ सौ वर्ष पूर्व इस आर्य-धर्म के अन्तर्गत एक विचित्र प्रकार की विशृंखला का प्रादुर्भाव हुआ है उस समय में ब्राह्मणों की कर्मकाण्ड प्रियता इतनी बढ़ गई थी कि उसमें के कितने ही प्रयोग "धर्म" नाम धारण करने के योग्य न रहे थे-आधुनिक पाश्चात्य विद्वानों का प्रायः यह मन्तव्य है कि समाज की इसी विशृंखला को दूर करने के लिये ही जैन
और वौद्धधर्म का प्रादुर्भाव हुआ था, पर कई कारणों से मेरे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com