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भगवान् महावीर
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हो जाता है। उसमें हास से विकास होता है, इसमें विकास से हास होता है । उस काल में मनुष्य अपनी निकृष्ट अवस्था से प्रारम्भ होकर उत्कृष्ट अवस्था को पहुँचता है इसमें उत्कृष्ट से निकृष्ट अवस्था को गति करता है। सुखमा-सुखमा काल खतम होने पर "सुखमा" काल का प्रादुर्भाव होता है उसके पश्चात् सुखमा दुखमा का। इस काल के मध्य तक तो भोगभूमि रहती है, फिर कर्म भूमिका आविर्भाव होता है। इसी काल में तीर्थकर उत्पन्न होना प्रारम्भ होते हैं जो चौथे दुखमा सुखमा काल के अन्त तक होते रहते हैं। भगवान महावीर इसी चौथे काल के अन्त में जब कि इस पंचमकाल के प्रारम्भ होने में तीन वर्ष और साढ़े आठ मास शेष थे, निर्वाण को प्राप्त हुए थे। उनके पश्चात् पंचमकाल का प्रारम्भ हुआ ।
गौतम के प्रश्न करने पर पञ्चमकाल के भाव बतलाते हुए भगवाम् महावीर ने कहा था--"हे गौतम ! पञ्चमकाल में सब -मनुष्यों की धर्म बुद्धि कषायों के कारण लोप हो जायगी ।
वे बाड़ रहित खेत की तरह मर्यादा रहित हो जायंगे । ज्यों 'ज्यों समय बीतता जावेगा, त्यों त्यों मनुष्य की बुद्धि पर अधिका"धिक मोह का परदा पड़ता जायगा । लोगों की हिंसादिक क्रूर प्रवृतियाँ बढ़ती जायंगी। ग्राम स्मशान की तरह, शहर प्रेतलोक के समान, कुटुम्बी दास की नाई और राजा यमदण्ड के समान होंगे। राजा लोग मद-मत्त होकर अपने मेवकों का निग्रह करेंगे और सेवक प्रजा-जनों को लूटना प्रारम्भ करेंगे। इस प्रकार का “मत्स्यन्याय" अर्थात् 'जिसकी लाठी उसकी
भैस' वाली कहावत चरितार्थ होगी । चोर चोरी से, राजा कर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com