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भगवान् महावीर
रस्सी है या सर्प" अवश्य संशयवाद है। क्योंकि इसमें निश्चय कुछ भी मालूम नहीं होता, पर स्याद्वाद में इस प्रकार का संशय कहीं भी नहीं पाया जाता। स्याद्वाद तो कहता है कि एक ही वस्तु को भिन्न भिन्न अपेक्षा से देखना चाहिये । लोहे का कड़ा लोहे की अपेक्षा से "नित्य" है यह निश्चित और ध्रुव है । इसी प्रकार वह "कड़े" की अपेक्षा से अनित्य है यह भो निश्चित है और कड़े की दृष्टि से वह सत् एवं तलवारों को दृष्टि से वह "असत्" है यह भी निश्चित है, इसमें सन्देह का कोई कारण नहीं। फिर यह संशय वाद कैसा ? प्रोफेसर आनन्द शङ्कर ध्रुव लिखते हैं कि___"स्याद्वाद का सिद्धान्त अनेक सिद्धान्तों को देख कर उनका समन्वय करने के लिये प्रकट किया गया है। स्याद्वाद हमारे सम्मुख एकीभाव की दृष्टि उपस्थित करता है। शङ्कराचार्य ने स्याद्वाद पर जो आक्षेप किया है उसका मूल तत्व के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । यह निश्चय है कि विविध दृष्टि-विन्दुओं द्वारा निरीक्षण किये बिना किसी वस्तु का सम्पूर्ण स्वरूप समझ में नहीं आ सकता। इसलिये स्याद्वाद उपयोगी और सार्थक है । महावीर के सिद्धान्तों में बताये गये स्याद्वाद को कोई संशयवाद बतलाते हैं मगर मैं यह बात नहीं मानता। स्थाद्वाद संशयवाद नहीं है । वह हमको एक मार्ग बतलाता है, वह हमें सिखलाता है कि विश्व का अवलोकन किस प्रकार करना चाहिए।"
शङ्कराचार्य और जैन मत के बीच में जो विरोध है, वह वस्तु स्वभाव के खयाल से सम्बन्ध रखता है। शङ्कराचार्य जगत् को एक मात्र ब्रह्ममय मानते हैं। जब कि जैनमत अनेShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com