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भगवान् महावीर
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एवंभूत-इस नय की दृष्टि से शब्द, अपने अर्थ का वाचक ( कहने वाला ) उस समय होता है-जिस समय वह अर्थ-पदार्थ उस शब्द की व्युत्पत्ति में से क्रिया का जो भाव निकलता हो, उस क्रिया में प्रवर्ता हुआ हो। जैसे 'गो' शब्द की व्युत्पत्ति है-"गच्छंतीति गौः" अर्थात् जो गमन करता है-उसे गो कहते हैं, मगर वह 'गो' शब्द-इस नय के अभिप्राय से-प्रत्येक गऊ का वाचक नहीं हो सकता है। किन्तु केवल गमन क्रिया में प्रवृत-चलती हुई गाय का ही वाचक हो सकता है । इस नय का कथन है कि शब्द की व्युत्पत्ति के अनु. सार ही यदि उसका अर्थ होता है तो उस अर्थ को वह शब्द कह सकता है।
यह बात भली प्रकार से समझा कर कही जा चुकी है, कि यह सातों नय एक प्रकार के दृष्टि बिन्दु हैं। अपनी अपनी मर्यादा में स्थित रह कर, अन्य दृष्टि बिन्दु षों का खंडन न करने ही में नयों की साधुता है। मध्यस्थ पुरुष सब नयों को भिन्न भिन्न दृष्टि से मान देकर तत्वक्षेत्र की विशाल सीमा का अवलोकन करते हैं । इसीलिये वे रागद्वेष की बाधा न होने से, आत्मा की निर्मल दशा को प्राप्त कर सकते हैं।
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