________________
३४९
भगवान् महावीर
धान का बीज-वृक्ष-सम्बन्ध अनादि काल से चला आ रहा है। परन्तु जब धान पर से छिलका उतर जाता है तब चावल अनेक प्रयत्न करने पर भी नहीं उगता, उसी प्रकार जीव के भी अनादि सन्तान:क्रम से विकृत भावों से कर्म-बन्धन और कर्म के उदय से विकृत भाव होते चले आये हैं। परन्तु जब छिलका रूपी विकृत भाव जुदा हो जाते हैं तब फिर चावल रूपी शुद्ध जीव को अङ्कुरोत्पत्ति रूपी कर्म बन्धन नहीं होता।
बन्धन का स्वरूप और उससे छुटकारा होने की सम्भावना मालूम कर लेने के बाद यह भी जान लेना आवश्यक है कि छुटकारा किसी परमात्मा के कर्म-फल देने या पैग़म्बर के दिलाने से होता है या जीव ही अपने पुरुषार्थ से बन्धनों से मुक्त हो जाता है।
यदि परमात्मा की ज़रूरत कर्म-फल देने के लिए है तो यह देखना चाहिए कि विषादिक भक्षण करनेवालों को मरणादिक फल बिना किसी फल-दाता के हो मिल जाता है। अगर यह कहा जाय कि विष खाने का फल भी ईश्वर ही देता है क्योंकि जीव कमों के करने में तो स्वतन्त्र है परन्तु उनके फल भोगने में परतन्त्र है तो यह भी ठीक नहीं। किसी धनाढ्य ने ऐसा कर्म किया जिसका फल उसे उसका धनहरण होने से मिल सकता है। ईश्वर स्वयं तो उसका धन चुराने के लिए आता नहीं, किन्तु किसी चोर के द्वारा उसका धनहरण कराता है । ऐसी अवस्था में अर्थात् जब चोर ने एक धनाढ्य का धन चुराया तब इस क्रिया से धनाढ्य को पूर्वकृत कर्म का फल मिला और चोर ने नवीन कर्म किया। अब बताइए कि चोर ने धनाढ्य के. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com