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भगवान् महावीर
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१क्षिप्त', २ मूद, ३ विक्षिप्त', ४ एकाग्र', ५ निरुद्ध ।
इन पाँच भूमिकाओं में से पहली दो आत्मा के विकास की सूचक है । तीसरी भूमिका विकास और अविकास का सम्मेलन है उसमें विकास की अपेक्षा अविकास का ही अधिक बल रहता है। चौथी भूमिका में विकास का बल बढ़ता है और वह पाँचवीं निरुद्ध भूमिका में पूर्णोन्नति पर पहुँच जाता है। यदि भाष्यकार के इसी भाव को दूसरे शब्दों में कहना चाहें तो यों कह सकते हैं कि पहली तीन भूमिकाएँ आत्मा के अविकास काल को है, और शेष दो भूमिकाएँ विकास काल की। इन पाँच भूमिकाओं के बाद की स्थिति को मोक्ष कहते हैं।
योगवासिष्ठ में आत्मा की स्थिति के संक्षेप में दो भाग कर दिये हैं ।१.अज्ञानमय और २.ज्ञानमय । अज्ञानरूप स्थिति को अविकास काल और ज्ञानमय स्थिति को विकास काल कह सकते हैं । आगे चल कर इन दोनों स्थितियों के और भी सात विभाग कर दिये गये
१ जो चित्त रजोगुण को अधिकता से हमेशा अनेक विषयों की ओर प्रेरित होने से अस्थिर रहता है; उसे क्षिप्त कहते हैं ।
२. जो चित्त तमोगुण के प्राबल्य से हमेशा निद्रा मन रहता है उसे मूढ़ कहते हैं।
३. जो चित्त अस्थिरता का विशेषता रहते हुए भी कुछ प्रशस्त विषयो में स्थिर रह सकता है । वह “विक्षिप्त" कहलाता है ।
४. जो चित्त अपने विषय में स्थिर बन कर रह सकता है, वह एकाग्र कहलाता है।
५. जिस चित्त में तमाम वृत्तियों का निरोध हो गया हो, केबल मात्र उनके संस्कार रह गये हों, वह निरुद्ध कहलाता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com