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भगवान् महावीर
है ? इन सब बातों को जैन तत्व-ज्ञान के अन्तर्गत सात भागों में विभक्त कर दी हैं जिनको सात तत्व कहते हैं। अर्थात् जीव, अजीव, श्राश्रब (पुद्गल के साथ जीव का सम्बन्ध होने का कारण) बन्ध, सँवर (उन कारणों को रोकने का प्रयत्न) निर्जरा ( उन बन्धनों को तोड़ने का उपाय ) मोक्ष ( उन सब बन्धनों से आजाद हो जाना) । इन्ही सात तत्वों के द्वारा जीव की शुद्ध और अशुद्ध दशाओं का बोध होता है।
मोक्ष को मानने वाले लोग जोव को वर्तमान और भविष्य अवस्था को मानते हैं। वे जीव को ज्ञान स्वरूप एवं प्रकृति से भिन्न भो मानते हैं। पर कुछ लोग ऐसे भी हैं जो उनके अनादित्व एवं अविनाशित्व को स्वीकार नहीं करते। उनके मतानुसार गर्भ से लेकर मृत्यु पर्यन्त ही जीव का अस्तित्व रहता है बाद में नष्ट हो जाता है । पर यदि वे सूक्ष्म दृष्टि से इस विषय पर विचार करेंगे तो अवश्य उन्हें अपने इस कथन में भ्रम मालूम होगा । में सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ, मैं राजा हूँ, मैं रङ्क हूँ,
आदि बातों में “मैं" शब्द का वाच्य इस शरीर से भिन्न अवश्य कोई दूसरा पदार्थ है और वह जीव है। सुख, दुखादि का अनुभव पुद्गल को नहीं होता उसका अनुभव करने वाला कोई दूसरा द्रव्य अवश्य होना चाहिए जो कि उसके साथ सन्बद्ध है। इसके अतिरिक्त श्वासोच्छास आदि क्रियाएं भी उसके अस्तित्व को साबित करती हैं। केवल पुद्गल में श्वासोच्छास नहीं हो सकता। जहां श्वासोच्छास है वहां जीव का अस्तित्व होना चाहिए । आकांक्षा, इच्छा, स्मृति आदि बातों से भी जोव के अस्तित्व की पुष्टि होती है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com