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भगवान् महावीर
३२८ कान्ततत्व का प्रतिपादन करता है। यदि शङ्कराचार्या इस दृष्टि से खण्डन करने का प्रयत्न करते तो उनके लिये ठीक भी था । पर उनका किया हुआ यह खण्डन तो बिल्कुल भ्रम
मूलक है।
_ "स्यात्" शब्द का अर्थ "कदाचित्" "शायद" आदि संशय मूलक शब्दों में न करना चाहिये । इसका वास्तविक अर्थ है "अमुक अपेक्षा से ।" इस प्रकार वास्तविक अर्थ करने से इसे कोई संशयवाद नहीं कह सकता।
विशाल दृष्टि से दर्शन-शास्त्रों का अवलोकन करने पर हमें मालूम होता है कि प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी तरह से प्रत्येक दर्शनकार ने इस सिद्धान्त को स्वीकार किया है । सत्व, रज और तम इन विरुद्ध गुण वाली तीन प्रकृतियों को मानने वाला सांख्यदर्शन, पृथ्वी को परमाणु रूप से नित्य और स्थूल रूप से अनित्य मानने वाला नैयायिक तथा द्रव्यत्व, पृथ्वीत्व, आदि धर्मों को सामान्य और विशेष रूप से स्वीकार करने वाला और वैशोषिक दर्शन, अनेक वर्णयुक्त वस्तु के अनेक वर्णाकार वाले एक चित्र ज्ञान को जिसमें अनेक विरुद्ध वर्ण प्रतिभासित होते हैं, मानने वाला बौद्ध-दर्शन, प्रमाता, प्रमिति और प्रमेय आकार वाले एक ज्ञान को जो उन तीन पदार्थों का प्रतिभास रूप है, मंजूर करने वाला मीमांसक-दर्शन और अन्य प्रकार से दूसरे दर्शन भी स्याद्वाद को अर्थतः स्वीकार करते हैं। . एक प्राचीन लेखक लिखते हैं-"जाति और व्यक्ति इन दो रूपों से वस्तु को बताने वाले भट्ट स्याद्वाद की उपेक्षा नहीं कर सकते । आत्मा को व्यवहार से बद्ध और परमार्थ से अबद्ध Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com