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भगवान् महावीर
पदार्थ को न एकान्त-नित्य और न एकान्त-अनित्य बल्कि नित्यानित्य रूप से मानना ही "स्याद्वाद" है।
इसके सिवाय एक वस्तु के प्रति "सत्" और "असत्" का सम्बन्ध भी ध्यान में रखना चाहिए। हम ऊपर लिख आये हैं कि एक वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से "सत्" है और दूसरी वस्तु के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से वही असत् है। जैसे वर्षा ऋतु में इन्दौर के अन्तर्गत मिट्टी का बना हुआ लाल घड़ा है । वह द्रव्य से मिट्टी का है, मृत्तिका रूप है, जल रूप नहीं। क्षेत्र से इन्दौर का है, दूसरे क्षेत्रों का नहीं। काल से वर्षा ऋतु का है, दूसरे समय का नहीं। और भाव से लालवर्ण वाला है, दूसरे वर्ण का नहीं। संक्षिप्त में प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूप ही से “अस्ति” कही जा सकती है। दूसरे के स्वरूप से वह "नास्ति' ही कहलायगी ।
किसी भी वस्तु को हम यदि केवल "सत्" हो कह दें, या केवल "असत्" कहें तो इससे उसका पूर्ण ज्ञान नहीं हो सकता। इस बात को स्पष्ट करते हुए हरिभद्र सूरि कहते हैं :• “सद सद्रपस्य वस्तुनो व्यवस्थापितत्वात् । संवेदन स्यापिच वस्तुत्वात् । तथा युक्ति सिद्धश्च । तथाहि संवेदनं पुरोऽव्यवस्थित घटादौ तदभावेत् रा भावाध्यवसायरूप मेवो पजायते ।.. नचसदसद्रूपेवस्तुति सन्मात्र प्रात भी स्वये तत्वत् स्तत् प्रतिभा स्येव, सम्पूर्णार्थी प्रतिमा सनात् । नरसिंह-सिंह संवेदनवत् । नचेत उभय प्रतिभासिन संवेद्यते तदन्य विविक्तता विशिष्ट स्यैव संवित्त । तदन्य विविक्तत्ता च भावः ।
... अनेकान्त जयपताका पृष्ठ ६३
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