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भगवान् महावीर
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केवल कायिक रूप (शारीरिक) बन कर ही समाप्त हो गया है, पर जैन-धर्म का अहिंसातत्व उससे बहुत आगे वाचिक और मानसिक होकर आत्मिक रूप तक चला गया है । दूसरे धर्मों की अहिंसा की मर्यादा मनुष्य जाति तक ही अथवा बहुत आगे गई है तो पशु और पक्षियों के जगत् में जाकर समाप्त हो गई है, पर जैन अहिंसा की कोई मर्यादा ही नहीं है । उसकी मर्यादा में तमाम चराचर जीवों का समावेश हो जाने पर भी वह अपरिमित ही रहती है । यह अहिंसा विश्व की तरह अमर्यादित और आकाश की तरह अनन्त है।
लेकिन जैन-धर्म के इस महान तत्व के यथार्थ रहस्य को समझने का प्रयास बहुत ही कम लोगों ने किया है। जैनियों की इस अहिंसा के विषय में जनता के अन्तर्गत बहुत अज्ञान
और भ्रम फैला हुआ है। बहुत से बड़े बड़े प्रतिष्ठित विद्वान् इसको अव्यवहार्य, अनाचरणोय, आत्मघातकी, एवं कायरता की जननी समझ कर इसको राष्ट्रनाशक बतलाते हैं । उन लोगों के दिल और दिमाग में यह बात जोरों से ठसी हुई है कि जैनियों की इस अहिंसा ने देश को कायर, और निर्वीर्य बना दिया है और इसका प्रधान कारण यह है कि आधुनिक जैन समाज में अहिंसा का जो अर्थ किया जाता है वह वास्तव में ही ऐसा है। जैन-धर्म की असली अहिंसा के तत्व ने आधुनिक जैन समाज में अवश्य कायरता का रूप धारण कर लिया है । इसी आधुनिक अहिंसा के रूप को देख कर यदि विद्वान् लोग भी उसको कायरता-प्रधान धर्म मानने लग जाये तो
आश्चर्य नहीं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com