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भगवान् महावीर
होती हैं और इन्हीं प्रवृत्तियों के द्वारा मन का रूप प्रकट होता है। ___ इस प्रकार तमाम कर्मों के अन्तर्गत मन को ही प्रधानता रहती है । इस कारण आत्मिक विकास में सब से प्रथम मन को शुद्ध और संयत बनाने को आवश्यकता है । जिसका मन इस प्रकार शुद्ध और संयत बन गया है, यद्यपि वह जब तक देह धारण करता है तब तक कर्मों से अलग नहीं रह सकता, तथापि उनसे निर्लिप्त अवश्य रहता है । गोता में कहा है कि
"नाहि देहन्नृता शक्यं त्यक्तुं कर्मण्य शेषतः योग युक्तो भूतात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः
सर्व भूनात्म भूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते । ___ गीता के इस कथनानुसार जो योगयुक्त विशुद्धात्मा, जितेन्द्रिय और सब जीवों में आत्म-बुद्धि रखने वाला पुरुष है वह कर्म करता हुआ भी उससे निर्लिप्त रहता है।
उपरोक्त सिद्धान्त से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जो सर्व व्रती और पूर्ण त्यागी मनुष्य है, उससे यदि सूक्ष्म कायिक हिंसा होती भी है तो वह उसके फल का भोक्ता नहीं हो सकता। क्योंकि उससे होनेवाली उस हिंसा में उसके भाव रंच-मात्र भी अशुद्ध नहीं होने पाते और हिंसक भावों से रहित होनेवाली हिंसा हिंसा नहीं कहलाती। "आवश्यक महाभाष्य" नामक जैन ग्रन्थ में कहा है कि
"असुभ परिणाम हेउ जीवा वाहो तितो मयं हिंसा
जस्स उन सो निमित्तं संतो विन तस्स सा हिंसा ।" अर्थात् किसी जीव को कष्ट पहुँचाने में जो अशुभ परिणाम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com