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भगवान् महावीर
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अवश्य है कि मनुष्य-हृदय की यह विकृति जब अपनी सीमा से बाहर होने लगती है, जब यह व्यष्टिगत से समष्टिगत होने लगती है तब कोई महापुरुष अवतीर्ण होकर उसको पुनः सीमावद्ध कर देते हैं। पर यह तो कभी सम्भव नहीं कि मनुष्य-प्रकृति की इस कुप्रवृति को बिल्कुल ही नष्ट कर दिया जाय । आज तक संसार के किसी भी अतीत इतिहास में इस प्रकार का दृश्य देखने को नहीं मिलता। जिस प्रकार शुद्ध ऑक्सिजन वायु से वायुमण्डल का कार्य नहीं चल सकता उसी प्रकार केवल आदर्श से भी समाज का व्यवहार बराबर नहीं चल सकता । बिना व्यवहार की उचित मात्रा के मिलाए वह समष्टिगत उपयोगी नहीं हो सकता। अतएव सिद्ध हुआ कि अहिंसा, क्षमा, दया आदि के भाव उसी सीमा तक मनुष्य समाज के लिए उपयोगी और अमलयाफ्ता हो सकते हैं जब तक मनोविज्ञान से उनका दृढ़ सम्बन्ध बना रहता है।
आधुनिक संसार के अन्तर्गत दो परस्पर विरुद्ध मार्ग एक साथ प्रचलित हो रहे हैं। एक मार्ग तो अहिंसा, क्षमा, दया आदि को केवल मनुष्य के काल्पनिक भाव बतलाता हुआ एवं उनका मखौल उड़ाता हुआ, हिंसा, युद्ध, बन्धु-विद्रोह आदि का समर्थन कर “जिसकी लाठी उसकी भैंस" वाली कहावत का अनुगामी हो रहा है । उसका आदर्श इहलौकिक सुख की पूर्णता ही में समाप्त होता है । और दूसरा पक्ष ऐसा है जो मनुष्य जाति को बिल्कुल शुद्ध आदर्श का सन्देशा देना चाहता है। वह मनुष्य जाति को उस ऊंचे आदर्श पर ले जाकर स्थित करना चाहता है जिस स्थान पर जाकर मनुष्य मनुष्य नहीं रह जाताShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com