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भगवान् महावीर
२९८ से व्यवहार करना-उनसे प्रेम भाव रखना इसी को अहिंसा कहते हैं । ईश्वर ने गीता में कहा है
कर्मणा मनसा वाचा सर्व भूतेषु सर्वदा ।
अक्लेश जननं प्रोक्ता अहिंसा परमर्षिभिः ॥ अर्थात् , मन, वचन, तथा कर्म से सर्वदा किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं पहुँचाना इसी को महर्षियों ने अहिंसा कहा है।
इस प्रकार की अहिंसा के पालन की क्या आवश्यकता है इस विषय को सिद्ध करते हुए श्रीहेमचन्द्राचार्य कहते हैं :
आत्मवत् सर्व भूतेषु सुखः दुखे प्रिया प्रिये ।
चिन्त यन्नात्मनोऽनिष्टां हिंसा मन्यस्य नाचरेत् ॥ जिस प्रकार अपने को सुख प्रिय और दुख अप्रिय लगता है, उसी प्रकार दूसरे प्राणियों को भी मालूम होता है। इस कारण हमारा कर्तव्य है कि हमारी आत्मा की ही तरह दूसरों की आत्मा को समझ कर उनके प्रति कोई अनिष्ठमूलक आचरण न करें।
इसी विषय को लेकर स्वयं भगवान् महावीर कहते हैं"सब्वे पाणा पिया उया, सुहसाया, दुह पडिकूला अप्पिय, वहा । पिय जोविणो, जीवि उकागा, (तम्हा ) णातिवाएज किंचणं ॥"
सब प्राणियों को आयु प्रिय है, सब सुख के अभिलाषी हैं, दुख सब के प्रतिकूल है, वध सबको अप्रिय है, सब जीने की इच्छा रखते हैं, इससे किसी को मारना अथवा कष्ट न पहुँचाना चाहिये।
इस स्थान पर एक प्रश्न उत्पन्न हो सकता है। वह यह कि
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