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भगवान् महावीर
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के लिये कहा । वह बोली पुत्र ! मैं दरिद्री हूँ, मैं खीर के पैसे कहां से लाऊँ ?" पर जब बालक ने हठ पकड़ ली तब धन्या अपनी पूर्व स्मृति को स्मरण करके रोने लगीं। उसको रुदन करते देख उसकी पड़ोसियों ने इसका कारण पूछा। धन्या ने गद्गद स्वर से अपने दुख का कारण कहा। तब सबों ने मिल कर दाद्र हो उसको दूध वगैरह सामान ला दिया । सब सामान पाकर धन्या ने खीर बनाई और एक थाली में परोस वह किसी गृह कार्य में संलग्न हो गई। इसी समय कोई मास क्षपण धारी मुनिराज उधर आहार लेने के निमित्त निकले । उन्हें देखते हो सङ्गमक के हृदय में भक्ति का उद्रेक हो आया और उसने वह खीर स्वयं न खा, मुनि को खिला दी। कुछ समय पश्चात् जब उसकी माता आई और उसने पुत्र की थाली में खीर न देखी तो उसने और बहुत सी खीर उसकी थाली में परोस दी। अतृप्त सङ्गमक ने उस खीर को कण्ठ तक खाया, जिससे उसे भयङ्कर अजोर्ण हो गया। और वह उस रोग से उसी रात को उन मुनि का स्मरण करते करते परलोक गामी हो गया।
मुनि दान के प्रभाव से सङ्गमक का जीव राजगृह नगर में गोभद्र सेठ की भद्रा नामक खो के उदर में अवतरित हुआ। भद्रा ने स्वप्न में पका हुआ शालि-क्षेत्र देखा, उसने वह बात अपने पति से कही, तब पति ने कहा कि 'तुम्हें पुत्र प्राति होगी' गर्भ जब चार मास का हो गया, तब भद्रा को दान धर्म और सुकृत करने का दोहला हुआ। भद्र बुद्धि गौ भद्र ने वह दोहला बड़े ही उत्साह के साथ पूर्ण किया। स्थिति काल पूर्ण हो; Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com