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भगवान् महावीर
२२८ उन्हें लकड़ी से मारता । पर इन उपसगों से कर्मों का क्षय होता है। यह समझ कर प्रभु दुख की जगह हर्ष ही पाते थे। कर्मरोग की चिकित्सा करने वाले प्रभु कर्म का क्षय करने में सहायता देने वाले म्लेच्छों को बन्धु से भी अधिक मानते थे । धूप
और जाड़े से रक्षा करने के निमित्त प्रभु को आश्रयस्थान भी नहीं मिलता था । छः मास तक धर्म जागरण करते हुए वे ऐसे ही स्थानों में धूप और जाड़े को सहन करते हुए और एक वृक्ष के तले रह कर उन्होंने नौवां चतुर्मास निर्गमन किया।
वहां से विहार कर प्रभु "गौशाला" के साथा सिद्धार्थपुर आये । वहां से कूर्मगांव की तरफ प्रस्थान किया, मार्ग में एक तिल के पौधे को देख कर गौशाला ने उनसे पूछा "स्वामी ! यह तिल का पौधा फलेगा या नहीं। भवितव्यता के योग से स्वयं महावीर मौन छोड़ कर बोले-“भद्र ! यह तिल का पौधा फलेगा। और इससे सात तिल उत्पन्न होंगे।" प्रभु की इस बात को असत्य करने के निमित्त गौशाला ने उस पौधे को उखाड़ कर दूसरे स्थान पर रख दिया। दैवयोग से उस प्रदेश में उसी समय एक गाय निकली उसके पैर का जोर लगने से वह पौधा वहीं पर लग गया।
यहां से चल कर प्रभु कूर्म ग्राम गये । वहां पर "गौशाला" ने "वैशिकायेन" नामक एक तापस को देखा। प्रभु का साथ छोड़ कर वह तत्काल वहां आया, और तापस को पूछने लगा-"अरे तापस ! तू क्या तत्व जानता है ? बिना कुछ जाने तू क्यों पाखण्ड करता है।" यह सुन कर भी वह क्षमाशील तापस कुछ न बोला। तब गौशाला बार बार उसे उसी प्रकार के कठोर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com