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भगवान् महावीर
थी। पोष मास की कृष्ण प्रतिपदा को वीर प्रभु यहां पर आये । उस दिन प्रभु ने भोजन के लिये बड़ा ही कठिन अभि ग्रह धारण किया।
"कोई सती और सुन्दर राजकुमारी दासीवृति करती हो । जिसके पैर में लोह की बेड़ी पड़ी हो, जिसका सिर मुण्डा हुआ हो, भूखी हो, रुदन कर रही हो। एक पग देहली पर और दूसरा पग बाहर रखे हुए खड़ी हो और सब भिक्षुक उसके यहाँ आकर चले गये हों। ऐसी स्त्री सूपड़े के एक कोने में उर्द रख कर उनका आहार मुझे करावे तो करूं अन्यथा चिरकाल तक मैं अनाहार रहूँ।"
इस प्रकार का अभिग्रह लेकर प्रभु प्रति-दिन गोचरी के समय उच्च नीच गृहों में फिरने लगे। पर कहीं भी उनको अपने अभिग्रह की पूर्णता दिखलाई न दी। इस प्रकार चार मास बोत गये। यह देख कर सब लोगों को बड़ा शोच हुआ। सबों ने सोचा कि अवश्य प्रभु ने कोई कठिन अभिग्रह धारण कर रक्खा है। सब लोग इस अभिग्रह को जानने की कोशिश करने लगे। राजा, रानी, मंत्री, नगर-सेठ आदि सभी बड़े चिन्तित हुए। कोई ज्योतिषियों को बुलाकर यह बात जानने की कोशिश करने लगे, पर सब निष्फल हुआ।
इसी अवसर पर कुछ समय पूर्व “शतानिक" राजा ने चम्पानगरी पर चढ़ाई की थी। चम्पा-पति “दधिवाहन" राजा उससे डरकर भाग गया था। तब "शतानिक" राजा ने अपनी सेना को आज्ञा दी कि जिसको जिस चीज की आवश्यकता हो लूट ले । यह सुनते ही सब लोगों ने नगर लूटना प्रारम्भ किया । दधिShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com