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भगवान् महावीर
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की तरह उसका मूल कारण कर्म ही है। अपने ही किये हुए कर्मों से विवेक रहित होकर प्राणी कुआ खोदने वाले की तरह अधोगति को पाता है । और शुद्ध हृदय वाले पुरुष अपने ही उपार्जित किये हुए कर्मों से महल बांधने वाले की तरह उर्ध्वगति पाते हैं। अशुभ कर्मों के बन्ध का मूल कारण "हिंसा" है, इस लिए किसी भी प्राणी की हिंसा कभी न करना चाहिये । हमेशा अपने ही प्राण की तरह दूसरों के प्राणों की रक्षा करने में भी तत्पर रहना चाहिये । आत्म पीड़ा के समान दूसरे जीव की पीड़ा को दूर करने की इच्छा रखने वाले प्राणी को कभी असत्य न बोलना चाहिए । मनुष्य के बहिः प्राण के समान किसी का बिना दिया हुआ द्रव्य भी न लेना चाहिये क्योंकि, उसका द्रव्य हरण करना बाह्य दृष्टि से उसके मारने ही के समान भयंकर है। इसके अतिरिक्त प्राणी को मैथुन से भी बचे रहना चाहिये। क्योंकि इसमें भी बहुत बड़ी हिंसा होती है। प्राज्ञ पुरुषों को तो मोक्ष के देने वाले ब्रह्मचर्य का ही सेवन करना चाहिये । परिग्रह का धारण भी न करना चाहिये । परिग्रह धारण करने से मनुष्य बहुत बोझा ढोनेवाले बैल की तरह क्लान्त होकर अधोगति को पाता है । इन पाचों ही वृत्तियों के सूक्ष्म और स्थूल ऐसे दो भेद हैं । जो लोग सूक्ष्म को त्याग करने में असमर्थ हैं उन्हें स्थूल पापों को तो अवश्य त्याग देना चाहिए।"
इस प्रकार प्रभु का उपदेश सुन कर सब लोग आनन्द मग्न हो गये :
ठीक उसी अवसर पर अपापा नगरी में "सोमिन" नामक एक धनाढ्य ब्राह्मण के घर यज्ञ था उसको सम्पन्न कराने के
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