________________
२२३
भगवान् महावीर
साथ रति क्रीड़ा करने के निमित्त उस शुन्य गृह में आया । उसने ऊंचे स्वर से कहा "इस गृह में जो कोई साधु, ब्राह्मण या मुसाफिर हो वह बाहर चला जाय" । प्रभु तो कायोत्सर्ग में होने के कारण मौन रहे, पर “गौशाला" इन शब्दों को सुनने पर भी कुछ न बोला। वह चुपचाप सब बातों को देखता रहा । जब उस युवक को कोई प्रत्युत्तर न मिला तब उसने उस दासी के साथ बहुत समय तक काम क्रीड़ा को। तत्पश्चात् जब वह घर से बाहर निकलने लगा, उस समय द्वार पर बैठे हुए "गौशाला" ने उस "विघुन्मती" का हाथ से स्पर्श कर लिया । जिससे वह चीख मार कर बोली-स्वामो किसी पुरुष ने मुझे स्पर्श किया । यह सुन "सिंह" ने गौशाला को पकड़ कर खूब पीटा । जब वह चला गया तब गौशाला ने कहा-स्वामो ! तुम्हारे होते हुए मुझ पर इतनी मार पड़ी ? यह सुन कर "सिद्धार्थ" ने उनके शरीर में प्रविष्ट होकर कहा तू हमारे समान शील क्यों नहीं रखता ? द्वार में बैठ कर इस प्रकार चपलता करने से तो उसका दण्ड मिलता ही है ।
यहां से विहार कर प्रभु "कुमार" नामक सन्निवेश में आये। वहां के चम्पक रमणीय उद्यान में वे प्रतिमा धर कर रहे । इस ग्राम में “कुपन" नामक एक कुम्हार बड़ा धनिक था। मदिरा. पान का इसको भयङ्कर व्यसन था। उस समय की शाला में मुनि चन्द्राचार्य नामक पाश्वनाथ प्रभु के एक बहु श्रुत शिष्य रहते थे। वे अपने शिष्य वर्द्धनसूरि को गच्छ के पाट पर बिठा कर स्वयं “जिनकल्प" का दुष्कर प्रति कर्म करते थे। तप, सत्य,
श्रुत, एकत्व और बल ऐसी पांच प्रकार की तुलना करने के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com