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भगवान् महावार
: एक बार भयङ्कर ग्रीष्म ऋतु का आगमन हुआ, पृथ्वी तवे की तरह तपने लगो, सूर्य की सीधी किरणें पृथ्वी पर पड़ने लगी । ऐसे समय "मरीचि" मुनि भयङ्कर तृषा से पीड़ित हुए
और घबराकर चरित्रावरणीय कर्म के उदय से इस प्रकार सोचने लगे कि, सुमेरु पर्वत की तरह कठिन इस साधुवृत्ति का भार बहन करने में मैं सर्वथा असमर्थ हूँ । पर अब इस वृत्ति को किस प्रकार छोडूं, जिससे लोक निन्दा सहन न करना पड़े। सब से अच्छा यही है कि इस वृत्ति को छोड़ कर मैं त्रिदण्डो सन्यास को ग्रहण करलूं। इस प्रकार कष्ट से कायर होकर मीचे ने उस वृत्ति को छोड़ दिया और त्रिदण्डी सन्यास को ग्रहण किया। ____एक बार ऋषभदेव भ्रमण करते करते पुनः विनीता नगरी के समीप आये । भरत चक्रवर्ती उनके दर्शनार्थ आये। समवशरण सभा में भरत चक्रवर्ती ने पूछा-भगवन् ! इस सभा में कोई ऐसा भी व्यक्ति उपस्थित है या नहीं जो भविष्य के इसी चौबीसी में तीर्थकर होने वाला हो । इस प्रश्न के उत्तर में ऋषभदेव ने मरीचि को ओर संकेत कर कहा कि यह तेरा पुत्र मरीचि इसी भरतक्षेत्र में "वीर" नामक अन्तिम तीर्थकर होगा। इसके पहले यही पोतनपुर में “त्रिपुष्ट" नामक प्रथम वासुदेव और
१. श्वेताम्बरी ग्रन्थकर्ताओं का कथन है कि इस प्रकार जाति भेद करके मरीचि ने "नीच "गौत्र" कर्म का बन्द कर दिया था। इसी के परिणाम स्वरूप इसके जोव को नीच गौत्र देवानन्दा" ब्राह्मणी के गर्भ में जाना पड़ा था। पर दिगम्बरी ग्रंथकार इस बात को नहीं मानते।
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