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भगवान् महावीर
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यद्यपि वह अत्यन्त क्षुधातुर था; फिर भी भोजन करने के पहले किसी अतिथि को भोजन कराने की उसकी प्रबल इच्छा थी। इतने ही में कुछ मुनि जो कि थकावट और पसीने से कान्त हो रहे थे, उधर निकल आये। उनको देखते ही वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ । उनको नमस्कार करके उसने पूछा-"भगवान् ! इस भयङ्कर जंगल में जहां कि अच्छे अच्छे शस्त्रधारी भी आने में हिचकते हैं-आप किस प्रकार आं निकले ?" मुनियों ने कहा कि एक मनुष्य हमारे साथ था, वह हमें छोड़ कर चला गया,
और हम मार्ग भूल कर इधर चले आये । नयसार ने मन ही मन उस मनुष्य की अत्यन्त भर्त्सना की और अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मुनियों को भोजन करवा कर उन्हें मार्ग पर लगा दिया। उसी दिन से उसने अपने जीवन को भी धर्म की ओर लगा दिया।
और अन्त समय शत्रु भावनाओं के साथ मर कर वह सौधर्म स्वर्ग में देवता हुआ। .: इस भरतक्षेत्र में "विनीता" नामक एक श्रेष्ट नगरी थी। उस समय उसमें श्री ऋषभनाथ के पुत्र भरतचक्रवर्ती राज्य करते थे। उन्हीं के घर पर उपरोक्त ग्रामचिन्तक "नयसार" के जीव ने जन्मग्रहण किया। इसका नाम "मरीचि" रक्खा गया। एक बार अपने पिता भरत चक्रवर्ती के साथ मरीचि, भगवान् ऋषभदेव के प्रथम समवशरण में देशना सुनने के निमित्त गया। ऋषभदेव के उपदेश को सुन कर उसने उसी समय दीक्षा ग्रहण कर ली और तदनन्तर वह भगवान ऋषभदेव के साथ ही साथ भ्रमण करने में लगा । इस प्रकार बहुत समय
वक यह बिहार करता रहा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com