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भगवान् महावीर
१९६ विदेहक्षेत्र की मूकापुरी नामक नगरी में "प्रियमित्र" नाम का चक्रवर्ती होगा।
इस बात को सुनकर "मरीचि" हर्ष से उन्मत्त होकर नाचने लगा। वह उँचे स्वर से कहने लगा कि पोतनपुर में मैं पहला वासुदेव होऊँगा, मूका नगरी में चक्रवर्ती होऊँगा और अन्त में अन्तिम तीर्थकर होऊँगा। अब मुझे किस बात की ज़रूरत है । मैं बासुदेवों में पहला, मेरा पिता चक्रवतियों में पहला और मेरा दादा तीर्थकरों में पहला । अहा मेरा कुल भी कितना उत्तम है !
श्री ऋषभदेव का निर्वाण ए पश्चात् मरीचि संसारी लोगों को उपदेश दे दे कर उच्चचरित्र साधुओं के पास भेजता था । एक बार वह बीमार हुआ। जब उसकी परिचर्या करने के निमित्त कोई उसके समीप न आया तो उसे बड़ी ग्लानि हुई और स्वस्थ होने पर उसने अपना एक शिष्य बनाने का विचार किया। दैवयोग से अच्छा होने पर उसे “कपिल" नामक एक कुलीन मनुष्य मिला, उसको उसने जैनधर्म का उपदेश दिया। उस समय कपिल ने पूछा कि आप स्वयं इस धर्म का पालन क्यों नहीं करते हैं । मरीचि ने कहा-मैं उस धर्म का पालन करने में समर्थ नहीं हूँ।" "कपिल ने कहा कि तब क्या आपके मार्ग में धर्म नहीं है ? यह प्रश्न सुनते ही उसे प्रमादी जान अपना शिष्य बनाने की इच्छा से मरीचि ने कहा कि “धर्म तो उस मार्ग में भी है, और इस मार्ग में भी है।" इस पर कपिल उसका शिष्य हो गया। जैन पुराणों का कथन है कि इस समय मिथ्याधर्म का उपदेश देने से "मरीचि" ने कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण संसार का उपार्जन किया । उस पाप
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