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भगवान् महावीर
२०६ देखते हैं । बिना सोचे समझे, चरित्र की अपूर्ण अवस्था में ही मुनि वृत्ति ग्रहण कर लेने का कितना दुष्परिणाम उसे सहन करना पड़ा । तपस्या त्याग और संयम का अभ्यास मनुष्य का जन्म से ही करना चाहिये, इसके लिये मुनिवृत्ति ही कोई आवश्यक वस्तु नहीं है । श्रावक वृत्ति में भी वह इन गुणों को पराकाष्ठा पर पहुँचा सकता है। श्रावक वृत्ति में जब वह आत्मा का पूर्ण विकास करले, जब उसे यह पक्का विश्वास हो जाय कि देहादिक पुद्गलों
और साँसारिक पदार्थों से उसे पूर्ण विरक्ति हो गई है तब वह चाहे तो मुनि वृति ग्रहण कर सकता है। इसके पहले असमय में ही बिना योग्यता प्राप्त किये ही मुनि वृत्ति को ग्रहण कर लेने से भयङ्कर हानि होने की सम्भावना होती है। किसी भी प्रकार का पक्कान्न यदि एक नियमित मात्रा में खाया जाय तो निश्चय है कि वह खाने वाले को लाभ पहुँचायेगा, पर यदि वही पक्कान कसी कम खुराक वाले को अधिक तादाद में खिला दिया जाय तो लाभ के बदले हानि ही अधिक पहुँचावेगा। इससे पकवान को बुरा नहीं कह सकता, यह दोष तो उस खाने वाले की पात्रता का है । इसी प्रकार मुनि वृति को कोई बुरा नहीं कह सकता, मोक्ष का सच्चा मार्ग यही है । पर इस मार्ग पर चलने के पूर्व पात्रता को प्राप्त कर लेना अत्यन्त आवश्यक है-बिना पात्रता प्राप्त किये हुए अनजान की तरह इस मार्ग पर चलने से बड़ा अनिष्ट होने का डर है।
दूसरी बात हमें यह देखने को मिलती है कि मनुष्य को अपने सुख अपनी सम्पत्ति अपनी शक्ति एवं अपनी कुलीनता
आदि बातों का अहङ्कार कभी न करना चाहिये । अहङ्कार यह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com