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भगवान् महावीर
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और अपनी वृत्ति के धर्म को भूल कर आवेश में आ उन्होंने उस माय के सींग पकड़ कर उसे आकाश में फेक दी । उसी सयम उन्होंने धारण की कि इस उग्र तपस्या के प्रभाव से मैं दूसरे भव में अत्यन्त पराक्रमी हो कर इस विशाखानन्दी का घात करूँ" उसके बहुत समय पश्चात् विश्वभूति मृत्यु पाकर महाशुक्र देवलोक में उत्कृष्ट आयु वाले देव हुए ।
इस भारत क्षेत्र में "पोतनपुर" नामक नगर में "रिपुप्रति शत्रु” नामक एक पराक्रमी राजा राज्य करता था । उसके भद्रा नामक एक रानी थी । उसके " अचल" नामक एक पुत्र और मृगावती नामक परम सुन्दरी कन्या थी । एक बार मृगावती जब अपने पिता के पास प्रणाम करने गई, तब उसके खिले हुए यौवन कुसुम और अनन्त रूपराशि को देख कर वह राजा अपनी उस पुत्री पर हो मोहित हो गया, उसने उसके साथ पाणिग्रहण करने की मन ही मन इच्छा की। दूसरे दिन उसने ग्राम के प्रति - ष्ठित वृद्ध जनों को बुलाकर पूछा " अपने स्थान में यदि कोई रत्न उत्पन्न हो तो उस पर किसका अधिकार रहता है ?” उन्होंने कहा “उस रत्न पर तुम्हारा अधिकार है ।" इस प्रकार उनके मुख से तीनचार कहला कर राजा ने अपनी मनोकामना को जाहिर किया । उसे सुनते ही वे लोग पत्थर के हा गये । पर वचन बद्ध हो जाने के कारण कुछ न कह सके । तब राजा ने गाँधर्व विधि से अपनी कन्या के साथ विवाह किया । यह देख कर लज्जा और क्रोध से आकुल होकर भद्रा रानी अपने पुत्र " अचल” को साथ लेकर वहां से बाहर दक्षिण की ओर चली गई । अचल कुमार ने " माहेश्वरी” नामक नवीन नगरी : बसा कर वहां
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