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भगवान् महावीर
१५२ डसवाया। उसके पश्चात् उसने भयङ्कर बिच्छू, नेवले, सर्प, उत्पन्न कर के उनके द्वारा प्रभु को कष्ट दिया, पर जगत्बन्धु, दीर्घ तपस्वी महावीर इन भयङ्कर उपसर्गों से रञ्च मात्र भी विचलित न हुए। वे इन उपसर्गों की आत्मा में रत्ती मात्र भी खेद न उपजाते हुए सहन कर रहे थे । इसी स्थान पर आकर महावीर जगत् के लोगों से आगे बढ़ते हैं। इसी स्थान पर आकर · उनका महावीरत्व टपकता है। ऐसे विकट समय में भी जो व्यक्ति अपने धैर्य से लेश मात्र भी विचलित न हो, इतना ही नहीं, ऐसे भीषण शत्रु के प्रति जिसके भावों में भी रञ्च मात्र द्वेष उत्पन्न न हो, ऐसे उत्कट पुरुष को यदि संसार के लोग महावीर माने तो क्या आश्चर्य !
यदि महावीर चाहते तो स्वयं अपनी शक्ति से अथवा इन्द्र के द्वारा इन उपसर्गों को रोक सकते थे, पर उन्होंने ऐसा करके प्रकृति के नियम में क्रान्ति उत्पन्न करना उचित न समझा। यदि वे ऐसा करते तो उसका फल यह होता कि “सङ्गम" की अपेक्षा भी अधिक एक बलवान से प्रकृति के नियम को रोकना पड़ता,
और जब तक प्रकृति में पुनः साम्यावस्था उपस्थित न हो जाती, जब तक कर्म की सत्ता पुनः क्षीण न हो जाती, तब तक उनको कैवल्य प्राप्ति से वंचित रहना पड़ता ।
इसमें तो सन्देह नहीं कि विश्वासी जैन बन्धुओं को छोड़ कर आजकल का बुद्धिवादी समाज इन उपसर्गों को कभी सम्भव नहीं मान सकता । पर सङ्गम के किए हुए उन उपसगों में हमें मनुष्य प्रकृति का सुंदर निरीक्षण देखने को मिलता है।
सङ्गम ने प्रभु को जिस भ्रम से कष्ट दिये थे, उनसे मालूम होता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com