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भगवान महावीर
व्याख्या बतलाते हैं। वे कहते हैं कि चरित्र धर्म है, और धर्म. आत्म-शान्ति है। मोह के क्षोभ से रहित आत्म परिणाम को आत्म शान्ति कहते हैं और जिन भावों के कारण आत्मा परद्रव्य में परिणत होती है उन भावों में आत्मा उस समय लीन होती है। इससे आत्मा जब परम चरित्र में तल्लीन हो जातो है, उस समय चरित्र ही उसका धर्म हो जाता है, और ज्ञान स्वयं आत्मा है । ज्ञान विना आत्मा नहीं, इससे ज्ञान ही आत्मा है। इस प्रकार चरित्र, धर्म और ज्ञान ये तीनों एक ही है। जितने अंशों में चरित्र है-उतने ही अंशों में ज्ञान है। जिस प्रकार ज्ञान-हीन चरित्र कुच्चरित्र है उसी तरह चरित्र हीन ज्ञान भी कुज्ञान है। महावीर के इस गहरे तत्वज्ञान को न तो हमारे वे भाई ही समझ सके हैं, जिन्हें हम पुराने जमाने के लोग (orthodose educated) कहते हैं। और न हमारे आधुनिक शिक्षित बाबू ही उसे भली प्रकार समझ सके हैं। पुराने जमाने के लोग ज्ञान रहित चरित्र को ही सब कुछ मान पकड़ बैठे हैं तो इधर ये नवीन बाबू चरित्रहीन ज्ञान को ही सब कुछ समझ बैठे हैं। जिस प्रकार नवीन लोगों की दृष्टि में पुराने लोग तिरस्कार और दया के पात्र हैं, उसी प्रकार सत्य की दृष्टि में ये नवीन लोग भी उनसे कम तिरस्कार और दया के पात्र नहीं हैं। क्योंकि दोनों ही पक्ष अज्ञान के भ्रममूलक झूले में झूल रहे हैं। महावीर के इस गहरे तत्वज्ञान को भूलकर दोनों ही पक्ष गलत रास्ते पर विचरण कर रहे हैं-महावीर का ज्ञान चरित्र से रहित न था और इसी प्रकार उसका चरित्र भी ज्ञान विहीन न था ।
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