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भगवान् महावीर
१८६ •ण्या वैसा ही करने की आदत हम लोगों में बहुत ही कम है, पर महावीर के अन्तर्गत यह बात न थी ! वे जैसा कहते थे वैसा ही करते थे। चरित्र और श्रद्धा से रहित ज्ञान तोते की रटी हुई रामायण से अथवा बकरे के गले के स्तन से अधिक महत्वपूर्ण नहीं हो सकता। हम लोग सैकड़ों हज़ारों ग्रन्थ पढ़ पढ़ कर अपने मस्तिष्क में भर लेते हैं, और खूब लिखने एवं पढ़ने को ही विद्या का परमं पुरुषार्थ मानते हैं । पर यह ठीक नहीं, हमारा यह लिखना और पढ़ना तब तक लाभप्रद नहीं हो सकता जब तक हम उसे श्रद्धा और चरित्र के साथ सम्बन्ध में न कर लें।
आज कल के ज्ञान की व्याख्या करते हुए एक विद्वान लिखता है कि
Our Knowledge has become synomimous with Logic. ___"हमारे ज्ञान का दूसरा नाम तर्कवाद पड़ गया है।" जो तर्कवाद मैं विजयी होता है, वही बड़ा ज्ञानी कहलाता है। पर महावीर के ज्ञान की ऐसी व्याख्या न थी। उनकी व्याख्या निम्न. प्रकार से थी:
चारितं खलु धर्मो जो सो समोत्ति णिदिट्ठो। मोह क्षोभ विहीनाः परिणाम आत्मनोहि शमः।। परिणमति जेण दव्वं तकालं तम्मयत्ति पएणतं । तह्मा धम्मपरिणद आदा धम्मो मुणेयव्वो ॥ णाणं अप्पत्ति मदं वदि णांण विणण अप्पाणं, तह्या णापां अप्पा, अप्या णांण व अण्णं वा ।
उपरोक्त तीन श्लोक महावीर के ज्ञान, धर्म और चरित्र की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com