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भगवान् महावीर
भगवान महावीर ने अपनी अपूर्व सहन शक्ति के द्वारा गुवाले का वह उपसर्ग भी शान्ति पूर्वक सहन कर लिया। वहां से चल कर वे एक दूसरे ग्राम में गये वहां पर “खाक" नामक एक वैद्य रहता था, उसने प्रभु की कान्ति को निस्तेज देख कर समझ लिया कि निश्चय इनको किसी प्रकार की शारीरिक पीड़ा है। अनुसन्धान करने से उसे शीघ्र ही उन कीलों का पता लग गया, सिद्धार्थ नामक एक सेठ की सहायता से उसने उन कीलों को खींच लिये । कहा जाता है कि उस समय प्रभु के मुख से एक भयङ्कर चीख निकल पड़ी थी। इतने भयङ्कर उपसर्गों को सहन करते समय उन्होंने एक भी कायरता का ठण्डा श्वास न डाला था, पर इस अन्तिम उपसर्ग में ऐसा मालूम होता है कि उनके उपशान्त मोहनीय कर्म की कोई प्रकृति अव्यक्त भाव से उदय हो गई होगी, जिसके कारण देह भाव का भान होने से चीख का निकलना सम्भव हो सकता है।
इस उत्कृष्ट उपसर्ग को सहन करने के पश्चात् उन पर किसी प्रकार का उपसर्ग न आया, इसके पश्चात् प्रभु को कैवल्य की प्राप्ति हो गई, कल्पसूत्र के अनुसार वैशाख सुदी दशमी के दिन, दिन के पिछले पहर में, विजय मुहुर्त के अन्तर्गत, जंभीक नामक ग्राम को बाहर रञ्ज-बालिका नदी के तीर पर वैऱ्यांवत नामक चैत्य के नजदीक शालिवृक्ष की छाह में, शुक्ल ध्यानावस्थित प्रभु को सब ज्ञानों में श्रेष्ठ केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई।
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