________________
१७१
भगवान् महावीर
में रही हुई "विज्ञानधन एव एतेभ्यो भूतेभ्य । समुत्थाय ता येवा नु विनशयति न प्रेत्य संज्ञा स्ति" और सबै अयं आत्मा ज्ञानमयः" इत्यादि तथा दमो दानं दया इति दकारत्रयं यो जानाति सजीवः ये ऋचाएं हैं । पहली ऋचा से जीव का सर्वथा अभाव प्रकट होता है और दूसरी से जीव का अस्तित्व भी सिद्ध होता है । साधक
और बाधक प्रमाणों के मिलने से तुम्हारा मन संशयान्दोलित हो रहा है । लेकिन तुम्हारी समझ में इनका वास्तविक अर्थ नहीं आया है। इसीलिए तुम भ्रम-जाल में पड़े हुए हो । अब हम तुन्हें इनका वास्तविक अर्थ बतलाते हैं।
"विज्ञानघन" यह आत्मा का नाम है। जब आत्मा घटपटादि किसी भी वस्तु को देखती है तब वह उपयोगरूप आत्मा इन्द्रिय गोचर पदार्थों को देखती सुनती है, या किसी भी तरह से अनुभव गोचर करती है। उस समय उन अनुभव-गोचर पदार्थों से ही “उस" उस उपयोग-रूप में पैदा होती है और उन घटपटादि पदार्थों के नष्ट हो जाने पर आत्मा उस उपयोग रूप से नष्ट हो जाती है। इसी बात को दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि घटपटादि भूतों से अर्थात् भूतविकारों से ही उपयोगरूप वह आत्मा उत्पन्न होती है और उनके बिखर जाने पर वह उनमें ही लय हो जाती है। ___"न प्रेत्य संज्ञास्ति' पहले तो घटपटादि उपयोगात्मक संज्ञा थी, फिर वह कायम नहीं रहती । उन पदार्थों से हट कर आत्मा अन्यान्य जिन जिन पदार्थों में उपयोग-रूप से परिणित होती है। उन उन पदार्थों के रूप के अनुसार उसकी नयी संज्ञा कायम होती जाती है । हे गौतम ! आत्मा का अस्तिस्त है, वह
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com