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भगवान् महावीर
हैं । विरोधी को मारने में उतना पाप नहीं बल्कि कभी कभी तो वह पाप कर्तव्य हो जाता है, लेकिन आश्रित को मारना तो भयङ्कर पाप है, और उससे भयङ्कर वेदनीय कर्म का बन्ध हो जाता है। __सत्ताहीन रङ्क मनुष्य को सुख देने में जितना अनिष्ट होता है, उसे आत्मज्ञ पुरुष ही भली भांति समझ सकते हैं-सूक्ष्म भूमिका पर बैर की वृत्ति किस प्रकार वृद्धि पाती है, इस बात को जिन लोगों ने समझा है, वे सारे संसार को इस बात का सन्देश दे गये हैं। इतिहास के पृष्ट उस ध्रुव सत्य की साक्षी खुले आम दे रहे हैं । सोता के प्रति अन्याय करने ही से सोने की लङ्का खाक में मिल गई । द्रोपदी के अपमान ने ही इतने बड़े कुरु साम्राज्य का ध्वंस कर दिया । और भी कई एक क्षत्री राज्यसत्ताएँ कई बड़ी बड़ी जातियाँ, इस प्रकार की वृत्ति से नष्ट हो गई, जब बड़ी बड़ी जातियों और राज्यों का यह हाल है तो फिर एक मनुष्य इस प्रकार की पामर वृत्ति के उग्र फल से किस प्रकार बच सकता है।
वासुदेव को यह सजा देते समय इस बात का गर्व था कि मेरे शासन चक्र में रहनेवाले तमाम मनुष्यों की मैं अपने इच्छानुसार गति कर सकता हूँ। मेरे कार्य में बाधा देनेवाली दूसरी कोई सत्ता इस विश्व में नहीं है। इस अभिमान के आवेश में वे इस बात को भूल गये कि इस भव के सिवाय दूसरा भी कोई भव है, जिसमें इस अधम कृत्य का भयङ्कर फल मिल सकता है। अपनी सत्ता के गर्व में अन्धे होकर वे प्रकृति की महान सता का विचार करना भूल गये, और इसी कारण इस भव में उनको
उसका बदला सहन करना पड़ा । अस्तु ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com