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भगवान् महावीर
१२६ तो गृहस्थ का धर्म है, उनके पूर्व कालीन प्रायः सभी तीर्थंकरोंने [एक दो छोड़ कर ] विवाह किये थे। इसके सिवाय उनकी परिस्थिति भी विवाह के सर्वथा अनुकूल थी। ऐसी हालत में मनोविज्ञान की दृष्टि के अनुसार भी उनका विवाह करना ही अधिक सम्भवः माना जा सकता है अब आदर्श की दृष्टि से लोजिए। यदि हम महावीर को गृहस्थ धर्म की राह से विकास करते देखते हैं तो हमें प्रसन्नता होती है। हमारे हृदय के अन्दर इस भावना का संसार होने लगता है किमहावीर की ही तरह हम भी गृहस्थाश्रम के मार्ग से होते हुए ईश्वरत्व की ओर जा सकते हैं।
आदर्श जीवन व्यतीत करनेवाले मनुष्य की साधारणतया दो अवस्थाएँ होती हैं। इन दोनों अवस्थाओं को अंग्रेजी में क्रमशः ? Self Aasertion और Self Realization कहते हैं। इन दोनों को हम प्रवृति मार्ग और निवृति मार्ग के नाम से कहें तो अनुचित न होगा। इन दोनों मार्गों में परस्पर कारण और कार्य का सम्बन्ध है। पहली अवस्था में मनुष्य को धर्म, अर्थ और काम को सम्पन्न करने की आवश्यकता होती है । यह प्रवृति शरीर और मन दोनों से सम्बन्ध रखती है । पैसा कमाना, विवाह करना, व्यवसाय करना,
अत्याचार का सामना करना, आदि गृहस्थाश्रम में पालनीय वस्तुएँ इस अवस्था का बाह्य उपदेश रहता है। पर वास्तविक उद्देश्य उसका कुछ दूसरा ही रहता है। वास्तविक रूप से देखा जाय तो वाह्य जगत को यह सब क्रियाएँ जीवन की वास्तविक स्थिति को प्राप्त करने की पूर्व तैयारियाँ हैं। बिना
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