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भगवान महावीर
बड़ा ही गम्भीर कारण है। हमलोग संसारी जीव हैं, हमलोग हमारी देह को अपनी आत्मा से भिन्न समझते हुए भी उसके सुख दुःख को आत्मा का सुःख दुख हो समझते हैं। हमलोग
आत्मा और देह के अनुभव को ज़दा ज़दा नहीं समझते, और इसी कारण ये दैहिक उपसर्ग भी हम लोगों की आत्मा को थर्रा देते हैं। इन्हीं उपसर्गों में हम "अहंतत्व" की कल्पना कर महा दुःखी हो जाते हैं। पर जिन महान आत्माओं के रोम रोम में यह निश्चय कूट कूट कर भराहुआ है कि देह और देहके धर्म तीन काल में भी आत्मा के नहीं हो सकते हैं। जिनके हृदय में पत्थर की लीक की तरह यह सत्य जमा हुआ है कि देह और आत्मा जुदी जुदी वस्तु है, उनके स्वभाव भी जुदे जुदे हैं। उनकी आत्मा को यह शारिरिक उपसर्ग किस प्रकार विचलित कर सकते हैं, एवं कष्ट पहुँचा सकते हैं।
मनुष्य के जितने भी अंशों में देहादिक पुद्गलों का अहंभाव रहता है उतने ही अंशो में शरीर के सुख दुःखादि कर्म उसकी
आत्मा पर असर करते हैं और उसी हदतक शास्त्रकारों ने मोहनीय और वेदनीय कर्म को प्रकृतियों को दी जदी बतलाई हैं। अर्थात् जितने अंशों में मोहनीय कर्म का प्राबल्य होता है, उतने ही अंशों में वेदनीय कर्म आत्मा पर असर करता है। मोहनीय कर्म के शिथिल पड़ते ही वेदनीय कर्म नहीं के समान हो जाता है। यदि हम वेदनीय कर्म को एक विशाल पाटवाली नदी और मोहनीय कर्म को उसमें भरा हुआ जल मानलें तो यह विषय और भी स्पष्ट हो जायगा । जिस प्रकार चाहे जितने ही विशालपाट वाली नदी भी जल के बिना किसी चीज़ को बहा ले Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com