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भगवान् महावीर
. भी सर्प, व्याघ्र, सिंह आदि योनियों में जन्म लेता है। जाति, स्मरण हो जाने के कारण सर्प को मालूम हो गया कि इसी भीषण क्रोध प्रवृति के कारण मेरी यह गति हुई है। यदि अब इस प्रवृति को न छोडूंगा तो भविष्य में न मालूम और कितनी अधमगति होगी । यह सोचकर उसने उसी दिन से उस क्रोध की प्रवृति का त्याग कर दिया । उसी दिन से वह एक वैरागी की तरह शान्त और निश्चल रहने लगा और अन्त में उसी स्थिति में मृत्यु पाकर वह शुभ जाति में उत्पन्न हुआ।
बहुत से लोग किसी क्रोधी मनुष्य का क्रोध अपने क्रोध के द्वारा उतारना चाहते हैं, पर उनका यह मार्ग अत्यन्त भूल से भरा हुआ है। हम देखते हैं कि क्रोध से क्रोध की ज्वाला दुगुनी होती है, जहर से जहर उतारने वाला वैद्यक शास्त्र का नियम इस स्थान पर कामयाब नहीं हो सकता। जिस प्रकार जलती हुई अग्नि में और अग्नि मिलाने से वह अधिक चमक उठती है, उसी प्रकार क्रोध का बदला क्रोध से देने से वह और भी अधिक ज्वलन्त हो उठता है। जगत के अंतर्गत हम नित्य प्रति जीवन-कलह के जो अनेक दृश्य देखा करते हैं वे इसी गलत नियम के भयंकर परिणाम हैं। क्रोध की अनमोल दवा क्षमा है । बिना क्षमा की शीतल धार के पड़े अग्नि शान्त नहीं हो सकती। यदि महावीरप्रभु उस सांप के काटने के बदले में उसे मारने दौड़ते अथवा अपने तेजोबल से उसे भस्म कर देते तो कदापि वह स्वार्थ सिद्ध न होता, जो क्षमा के स्थिर प्रभाव से हुआ।"
लेकिन आधुनिक जगत में इस क्षमा के भी कई अर्थ होने लगे हैं, अतः इस स्थान पर इस शब्द का स्पष्टीकरण कर देना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com