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( २३ ) को न देखना और न जानना ही है। सब भूत प्राणियोंके जीवन का लक्ष्य साक्षात अथवा परम्परा करके एकमात्र आपके स्वरूप की प्राप्ति ही है। न जाने आप कैसे मधुर होंगे ? जिन्होंने सभी भूत-प्राणियोंको अपने लिये ऐसे ही व्याकुल किया हुआ है, जैसे 'फणि मणि विनु जिमि जल बिनु मीना।
हे देव ! साक्षात् श्राप न यज्ञसे प्राप्त किये जाते हैं न तपसे, 'न दान करके ही श्राप मिलते हैं न जपसे, न तीर्थयात्रा करके हो
आपको पाया जा सकता है और न व्रत करके। यदि आप हमसे कुछ भिन्न हुए होते तो इन साधनाद्वारा आपको भली-भाँति मनाया जा सकता था। परन्तु आप तो सबके अपने-श्राप है, फिर साक्षात् इन साधनोंद्वारा आपको कैसे पाया जाय ? केवल महावाक्यरूप शंन्टोसे सर्वत्यागद्वारा अपने ज्ञान करके ही आप पाये जाते हैं, अन्य कोई मार्ग आपकी प्राप्ति के लिये न हुआ है और न होगा। . 'नान्यः पन्था विमुक्तये ।
यद्यपि आपको जानकर शन्द निस्सार हो जाते हैं, तथापि जाने जाते हैं श्राप शन्दोंद्वारा ही। जैसे धानको लेकर भूसा त्याग कर दिया जाता है, परन्तु धानकी प्राप्ति होती तो भूसेसे ही है। . हे वैराग्यमूर्चि शिवस्वरूप ! पत्र-पुष्परूपसे ये कुछ त्यागकी भेटें आपके चरण-कमलोंमें निवेदन की जा रही हैं । यद्यपि श्राप के दर्शनसे त्यागका भी त्याग सिद्ध हो जाता है, तथापि जिस प्रकार दीपकसे सूर्यनारायणकी आरती करनेमें सूर्यनारायणको प्रकाश करना उद्देश्य न जान, केवल भावुक भक्तका भाव ही ग्रहण कर लिया जाता है ।इसी प्रकार इन भेटस्वरूप पत्र-पुष्पोंसे
आप भ्रमरके समान अपने प्रिय शिष्यके भावरूप सुगन्धको ग्रहण करनेकी कृपा करें, यही आपके चरणों में विनम्र निवेदन है ॥
दासानुदास-आत्मानन्द मुनि