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PARAN
-ग्रन्थ
ब्रह्मलीन पूज्यपाद देवाधिदेव श्रीगुरुदेव श्री १०८ मुनिराज श्रीस्वामी रामेश्वरानन्दजी महाराजके
चरण कमलों में
हे गुरो ! तीन लोक, चौदह भुवन, सप्त द्वीप, नव खण्ड केवल आपका भृकुटी-विलास है। आपके नेत्र खोलनेसे संसार की उत्तपति और नेत्र बन्द करनेसे ससारका प्रलय स्वतः सिद्ध है। अनन्त ब्रह्माण्ड आपका स्फुरणमात्र है। अखिल संसारके
आदि कारण 'कारणं कारणानाम्'• आप ही हैं, सत्यस्य सत्य प्राणा वै मत्यं तेषामेष सत्यमिति' सत्यके सत्य वह परम सत्य पाप ही हैं । सव कुछ करते हुए भी आप अकर्ता हैं सब कुछ भोगते हुए भी आप अभोक्ता हैं । हे सर्वसाक्षिन् । सम्पूर्ण अध्यात्म, आदिदेव और अधिभूत अर्थात समष्टि इन्द्रियों,उनके विषय और उनके देवता आपके स्वरूपमें मायामात्र हैं, जोकि
आपके आश्रय प्रतीत होते हुए भी आपके स्वरूपमे इनका न भाव हैन अभाव । सभी भाव-अभावोंसे परे आप परम भावरूप हैं और किमी भी वृत्तिके विषय नहीं होते । यद्यपि प्रत्येक वृत्ति और प्रत्येक भाव-अभावरूप विषयमें आप होते जरूर हैं तथा सर्वरूप होरर नयके द्रष्टा भी हैं, परन्तु किसी करके दिखलाई नहीं पढते।
'येनेदं सर्व विजानाति तं केन विजानीयात' हे सर्वात्मन् ! यद्यपि आप सबकी आत्मा हैं, सबके अपनेआप हैं और नको देसते-जानते हैं, तथापि आपको देखे व जाने विना बड़ा कष्ट है । संसारके सब दुःखोंका मूल केवल आप