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आनन्द प्रवचन : भाग ६
जहा लाहो तहा लोहो, लाहो लोहो पवड्ढइ । दो मास कयं कज्जं, कोडीए वि न निट्ठियं ॥
जहाँ लाभ होता है वहाँ लोभ होता है । लाभ से लोभ बढ़ता है । कपिल को सिर्फ दो माशा स्वर्ण से काम था, परन्तु राजा के वचन का लाभ मिलने पर लोभ इतना आगे बढ़ गया कि करोड़ स्वर्णमुद्राओं से सन्तुष्ट नहीं हुआ ।
एक पाश्चात्य विचारक Juvenal ( जूवेनल) ने भी इसी बात का समर्थन किया है—
"Avarice increases with the increasing pile of gold." - सोने का ढेर बढ़ने के साथ-साथ लोभ भी बढ़ता जाता है ।
कपिल एक गरीब ब्राह्मण था । वह कौशाम्बी से श्रावस्ती जाकर अपने पिता काश्यप के मित्र इन्द्रदत्त उपाध्याय से विद्याध्ययन करता था । परन्तु जिस सेठ के यहाँ भोजन का प्रबन्ध था, उसकी दासी के साथ उसका प्रेम हो गया । दासी ने एक दिन उत्सव में जाने के लिए वस्त्र, आभूषण आदि ला देने का कपिल से आग्रह किया । परन्तु कपिल के पास धन था नहीं । दासी ने उसे उपाय बताया कि नगर के राजा को सर्वप्रथम जो आशीर्वाद देता है, उसे वह दो माशा सोना देता है, तो आप सबसे पहले जाकर राजा को आशीर्वाद दीजिए और दो माशा सोना ले आइए ।
को ही घर से दौड़ता हुआ राजमहल की सिपाहियों ने चोर समझकर पकड़ लिया। ने जब कपिल से आधी रात को भागते हुए जाने का बातें सच-सच कह दीं । राजा उसकी सत्यवादिता से कपिल से कहा - " भूदेव ! मैं तुम पर तुष्ट हूँ जो चाहो सो माँग लो, मैं दूंगा ।"
. कपिल चाँदनी रात देखकर भोर होने का समय निकट जानकर आधी रात ओर चल पड़ा। उसे दौड़ते हुए देख सुबह राजा के समक्ष पेश किया । राजा कारण पूछा तो उसने सारी बहुत प्रभावित हुआ । उसने
कपिल ने कहा - "अच्छा, ऐसी बात है, तो मैं एकान्त में जाकर विचार करके माँगूँगा ।" राजा ने उसे अशोक वाटिका भेज दिया । कपिल वहाँ बैठकर सोचने लगा - 'दो माशा सोने से क्या होगा ? पूरे वस्त्र एवं गहने भी नहीं बनेंगे । राजा ने खुले दिल से माँगने को कहा है, तो सौ स्वर्णमुद्राएँ क्यों न माँग लूं ।' फिर सोचा'रथ, घोड़े आदि सब सुख-साधन १०० स्वर्णमुद्राओं से नहीं होंगे, अतः हजार सौनेये माँग लूं । पर हजार सोनेयों से भी क्या होगा ? इनसे तो विवाह, सैर सपाटे, बाग बगीचा, महल आदि नहीं होंगे । एक करोड़ माँग लूँ । परन्तु इतने से भी सारा काम नहीं होगा, अतः हजार करोड़ माँग लूँ ।' यो लाभ के साथ-साथ लोभ बढ़ता ही गया । परन्तु फिर किसी पूर्व पुण्योदय से शुभ विचार की बिजली हृदय में कौंधी, सोचा—'कैसी है यह लोभ की विडम्बना । मैं तो सिर्फ दो माशा सोने के लिए आया
था, लेकिन लाभ को देखते ही मेरे मुँह में को पाने तक पहुँच गया । फिर भी लोभ
पानी भर आया और मैं करोड़ों स्वर्णमुद्राओं पूर्ण न हुआ । इस प्रकार तो मेरा लोभ
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