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दुःख का मूल : लोभ
धर्मप्रेमी बन्धुओ,
आज आपके समक्ष मैं एक ऐसे जीवन की चर्चा करना चाहता हूँ जो अपनी लोभी मनोवृत्ति के कारण जानबूझकर दुःख को आमंत्रित करता है । ऐसा जीवन बाहर से समृद्ध दिखता हुआ भी सच्चे सुख से वंचित होता है । गौतम कुलक का यह इक्कीसवाँ जीवन-सूत्र है । इसमें गौतम ऋषि ने बताया है
"लोहो, हो कि ?" -दुःख क्या है ? लोभ ।
अर्थात् लोभ दुःख की खान है । जीवन में जब-जब लोभ आता है, तब-तब वह किसी न किसी दुःख को बुला लेता है।
लोभ क्या है ? मनुष्य के मन में जब यह अविश्वास होता है कि मेरी और मेरे परिवार की सुरक्षा कैसे होगी ? उनका पेट कैसे भरेगा ? पता नहीं, भविष्य में कभी भूखों मरना पड़े, इसलिए कुछ संग्रह करना चाहिए । फिर जब कुछ धन संग्रह हो जाता है तो वह सोचता है इस धन में से जरा भी खर्च न हो, इसे ज्यों का त्यों रखा रहने दिया जाए। साथ ही उसे अपने संचित धन को देखकर यह इच्छा होती है कि और धन कमाया जाए, और इकट्ठा किया जाए। इस प्रकार अविश्वास और भय से प्रेरित होकर मनुष्य भविष्य के लिए धन-संग्रह करता है, फिर उस धन की सुरक्षा करता है और खर्च करना नहीं चाहता। इसके पश्चात् धन को बढ़ाने की इच्छा से प्रेरित होकर वह और अधिक धन बटोरता है, इकट्ठा करता है । बस, यही लोभवृत्ति है।
लाभ और लोभ में सम्बन्ध लोभ और लाभ दोनों का कार्यकारणभाव सम्बन्ध है। जब एक बार लाभ होता है, तब साधारण मनुष्य के मन में लोभ जागता है। लाभ को देखकर मनुष्य लोभ से प्रेरित होकर संग्रह करता है, फिर संग्रहीत धन की सुरक्षा का प्रबन्ध करता है, और फिर उपलब्ध धन की वृद्धि के लिए पुरुषार्थ करता है। इसीलिए लाभ के साथ लोभ की मनोवृत्ति को भगवान महावीर ने जुड़ी हुई बताई है
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