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आनन्द प्रवचन : भाग ६
शय्यंभव सीधे आचार्य प्रभव स्वामी के पास आए। उनसे पूछा- 'बताइए तत्त्व क्या है ?"
आचार्यश्री ने कहा- "तुम यज्ञ कर रहे हो, लेकिन अभी तक जान नहीं पाए कि यज्ञ क्या है ? सुनो, यज्ञ करना तत्त्व है । परन्तु कौन-सा यज्ञ ? वह पशुवधमूलक नहीं, आध्यात्मिक यज्ञ । यज्ञ बाहर में नहीं, भीतर में करना है। मन में जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, वासना, मद, मत्सर आदि पशु बैठे हैं, उन्हें होमना है; उनकी बलि देना है । यही सच्चा यज्ञ है।" बस, शय्यंभव ने जब से यह सत्य पाया, वे शीघ्र उस सत्य के सामने झुक गए। वे वहीं आचार्य प्रभव स्वामी के शिष्य बन गए। उनके श्रीचरणों की सेवा करके वे जैन जगत् के ज्योतिर्धर आचार्य बन गये ।
सत्यशरण में जाने वाले में इतनी ही नम्रता होनी चाहिए। सर्वस्व समर्पण की वृत्ति ही सत्यशरण के लिए अपेक्षित है। व्यावहारिक जगत् में भी सत्यशरण ग्रहण करने वाले को अपना लेन-देन, तौलनाप, सोचना-विचारना, बोलना-चलना, संकल्प-सुकल्प सभी सत्य की धुरा पर करना चाहिए। जैसा कि पाश्चात्य लेखक इमर्सन( Emerson) ने कहा है
"The greatest homage we pay to truth is to use it.”
-सत्य का सबसे बड़ा अभिनन्दन, जिसे कि हम कर सकते हैं, वह है, सत्य का सर्वतोमुखी आचरण । एक सत्यनिष्ठ कवि ने सत्येश्वर प्रभु से प्रार्थना की है
प्रभु विनय यही है चरणन में।
हो सन्मति जन-जन के मन में ॥ध्रुव।। सत्य ही सोचें, सत्य ही बोलें, सत्य ही ना, सत्य ही तोलें।
रहें मस्त सदा सत्प्रण में ॥प्रभु०॥ सत्य का सब देश पुजारी हो, हठवाद की दूर बीमारी हो।
अभिमान न हो, मानव-मन में ॥ प्रभु०॥ वास्तव में जीवन के कण-कण में जब सत्य की प्रतिष्ठा करेंगे, तभी सर्वांगीण रूप में सत्य की शरण गही समझी जाएगी। सत्य के लिए गणधर गौतमस्वामी जैसी जिज्ञासा, समर्पणवृत्ति, सत्यनिष्ठा और सदा सत्य की जागृति होनी चाहिए तभी सत्य की शरण जीवन में साकार होगी। इसीलिए महर्षि गौतम ने गौतमकुलक में कहा
'किं सरणं ? तु सच्चं ।'
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