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(५) पांचवां पाठ "निर्ग्रन्थ प्रवचन" (नमो चउव्वीसाए) का है, जिसमें जिन प्रवचन (शास्त्र) की एवं जैनमत की महिमा है तथा आठ बोलों में हेय - उपादेय का कथन है। वह भी श्रावकों के लिए परमोपयोगी है। इस प्रकार श्रमणसूत्र में एक भी विषय या पाठ ऐसा नहीं है जो कि श्रावक के लिए अनुपयोगी हो।
शंका (३) - श्रावक की तरह साधु को भी श्रावकसूत्र प्रतिक्रमण में कहना चाहिए, क्योंकि उसमें भी ज्ञेय, हेय, उपादेय आदि तीनों प्रकार के पदार्थों का कथन है।
समाधान (३)- श्रावक के व्रतों और अतिचारों को एक साथ कहना आवश्यकसूत्र है। लेकिन यह विषय बड़ा विचारणीय है। (१) साधु के महाव्रतों में श्रावक के अणुव्रतों का समावेश हो जाता है, इसलिए साधु को श्रावकों के व्रत कहने की आवश्यकता नहीं है। (२) श्रावक को तो साधु होने का मनोरथ अवश्य करना चाहि अतः श्रमणसूत्र कहने की आवश्यकता है, परन्तु यदि कहे कि साधु भी श्रावक होने की भावना करे और श्रावक सूत्र को प्रतिक्रमण में कहे तो यह कथन सर्वथा अयोग्य ही होगा।
शंका (४) - श्रावक श्रमणसूत्र सहित प्रतिक्रमण करते थे या करते हैं, इसका कोई प्रमाण है क्या ?
समाधाना (४) - द्वादश वार्षिक महादुष्काल से धर्मस्खलित जैनों के पुनरुद्धारक श्रावकवरिष्ठ श्री लोकाशाह गुजरात देश के अहमदाबाद शहर में हुए। उस देश में अर्थात् गुजरात, झालावाड़, काठियावाड़, कच्छ आदि देशों में - छह कोटि एवं आठ कोटि वाले सभी श्रावक श्रमणसूत्र सहित प्रतिक्रमण करते थे एवं करते हैं। सनातन जैन साधुमार्गी समाज के पुनरुद्धारक परमपूज्य श्री लवजीऋषिजी महाराज के तृतीय पार पर विराजित हुए परम पूज्य श्री कहानजीऋषिजी महाराज की सम्प्रदाय के श्रावक श्रमणसूत्र बोलते हैं।
बाईस सम्प्रदाय के मूलाचार्य परम पूज्य श्री धर्मदासजी महाराज की सम्प्रदाय के श्रावक एवं मेवाड़ देश धर्मप्रवर्तक पूज्य श्री एकलिंगदासजी महाराज की सम्प्रदाय के श्रावक श्रमणसूत्र सहित प्रतिक्रमण करते हैं।
उपर्युक्त शंका-समाधान से सिद्ध होता है कि श्रावक को श्रमणसूत्र सहित प्रतिक्रमण करना चाहिए। श्रमणसूत्र के पाठों के बिना श्रावक की क्रिया पूरी तरह शुद्ध नहीं हो सकती है। क्योंकि श्रावकों को अवश्य जानने योग्य विषय और आचरण करने योग्य विषय श्रावकसूत्र में हैं। प्राचीनकाल के श्रावक श्रमणसूत्र सहित प्रतिक्रमण करते थे, वर्तमान में भी कुछ श्रावक श्रमणसूत्र सहित प्रतिक्रमण करते हैं और जो श्रमणसूत्र सहित प्रतिक्रमण नहीं करते हैं, उन्हें अब करना चाहिए। प्रस्तुत संस्करण
आवश्यकसूत्र का प्रस्तुत संस्करण आगम प्रकाशन समिति द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है। इस समिति की आयोजना हमारे स्वर्गीय गुरुदेव पूज्य युवाचार्य श्री 'मधुकर' मुनिजी महाराज द्वारा की गई थी। गुरुदेव का यह विचार था कि मूल आगमों का प्रकाशन ऐसी पद्धति से किया जाए जिससे सर्वसाधारण आगमप्रेमी जनों को भी उनका स्वाध्याय कर सकना सरल हो। यह कोई सामान्य संकल्प नहीं था। एक भागीरथ अनुष्ठान था, मगर महान् संकल्प के धनी गुरुदेव ने इसे कार्य रूप में परिणत किया और आपके निर्देशन में अनेक आगामों का प्रकाशन हो भी गया। किन्तु दुःख का विषय यह है कि गुरुदेव बीच में ही स्वर्ग सिधार गए। तत्पश्चात् भी अनेक मुनिवरों और उदार सद्गृहस्थों के महत्त्वपूर्ण सहयोग से गुरुदेव द्वारा निर्दिष्ट प्रकाशन - कार्य अग्रसर हो रहा है। अब यह प्रकाशन कार्य गुरुदेव युवाचार्यश्री के प्रति एक प्रकार से श्रद्धांजलि-स्वरूप ही समझना चाहिए।
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