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प्र० पच्चक्खाणेणं भंते जीवे किं जणय ?
उ०- पच्चक्खाणेणं आसवदाराई णिरुंभइ, पच्चक्खाणेणं इच्छानिरोहं जणयइ । इच्छानिरोह गए य
णं जीवे सब्वदव्वेसु विणीयतण्हे सीईभूए विहरड़ ।'
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प्र०
भगवन् ! प्रत्याख्यान द्वारा आत्मा किस आत्म-गुण को प्रकट करता है ?
उ०- प्रत्याख्यान द्वारा आत्मा आश्रय के द्वारों को रोक देता है। जब तक आते हुए आश्रयों के द्वारों को नहीं रोकता है, तब तक कर्मों का प्रवाह आत्मा में आता ही रहता है। जब तक किसी वस्तु का प्रत्याख्यान नहीं किया जाता, तब तक तत्संबंधी आसक्ति दूर नहीं होती और कर्म-रज आता ही रहता है। प्रत्याख्यान से इच्छाओं का निरोध हो जाता है क्योंकि इच्छाओं को मर्यादित किये बिना प्रत्याख्यान संभवित नहीं प्रत्याख्यान का एक बड़ा लाभ यह भी है कि मन की तृष्णा जन्म स्थिति एवं चंचलता समाप्त हो जाती है और साधक को परम शान्ति का अनुभव होता है।
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कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि षटावश्यक साधक के लिये अवश्यकरणीय क्रिया है। साधक चाहे श्रमण हो अथवा श्रावक इन क्रियाओं को करता ही है, लेकिन दोनों की अनुभूति में तीव्रता मन्दता हो सकती है। श्रावक की अपेक्षा श्रमण इन क्रियाओं को अधिक तल्लीनता से कर सकता है, क्योंकि श्रमण आरंभ समारंभ से सर्वथा विरत होते हैं। यह अवश्य करणीय क्रिया श्रमण साधक प्रतिदिन अनिवार्य रूप से करता है।
छह आवश्यकों का क्रम बड़े वैज्ञानिक ढंग से निरूपित किया गया है। पहला 'सामायिक' आवश्यक जीवन में समभाव की साधना सिखाता है 'चतुर्विंशतिस्तव' द्वारा वह तीर्थंकर भगवन्त्रों जैसी वीतरागता अपने अन्दर विकसित करने की भावना करता है। 'वन्दना' के द्वारा वह स्वयं विनय गुण से विभूषित होता है, 'प्रतिक्रमण' द्वारा समस्त बाह्य एवं वैभाविक परिणतियों से विरत होकर अन्तर्मुख बनता है, 'कायोत्सर्ग' के द्वारा शरीर की ममता कम की जाती है तथा आत्मभाव में रमण किया जाता है और 'प्रत्याख्यान' में भविष्य के लिए विभिन्न प्रकार के त्याग ग्रहण किए जाते हैं। इस प्रकार साधक षडावश्यक से अपने अध्यात्म जीवन को जगाता हुआ मुक्ति की राह पर कदम बढ़ाता है।
प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के श्रमणों के लिये यह अनिवार्य है कि वे नियमतः आवश्यक करें। यदि वे आवश्यक क्रिया नहीं करते हैं तो श्रमणधर्म से च्युत हो जाते हैं। यदि दोष लगा है तो भी और दोष नहीं लगा हो तो भी प्रतिक्रमण अवश्य करना ही चाहिए।'
श्रमणसूत्र सम्बन्धी विचारणा
मुमुक्षु प्राणियों की इच्छा पूर्ण करने वाला एक मात्र धर्म ही है और वह विशुद्ध आत्मा में रह सकता है। जिस प्रकार किसान बीज बोने से पहले अपनी जमीन में हल चलाता है, खाद डालता है, कंकर पत्थरों को तथा फालतू घास-फूस आदि को हटाता है, उसके बाद ही वह खेत में बीज बोता है ऊसर भूमि में बीज बोने से या कंकरीली, पथरीली भूमि में बीज बोने से फसल पैदा नहीं हो सकती। इसी प्रकार हृदय भी एक क्षेत्र है। इसमें
१. उत्तराध्ययनसूत्र अ. २९ सूत्र १४
२. सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिण्स्स । मज्झिमयाण जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणं ॥
आवश्यकनिर्युक्ति, गा. १२४४
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