________________
धर्मरूपी बीज बोने से पहले इसकी शुद्धि करनी होती है। कहा भी है - 'धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई।' धर्म शुद्ध हृदय में ही ठहरता है। आत्मा को विशुद्ध बनाकर धर्म में स्थित करने के लिए कुछ नियम आगमों में निर्दिष्ट हैं। आवश्यक इन्हीं नियमों में से एक मुख्य नियम है। 'आवश्यक' जैन साधना का मूल प्राण है तथा अपनी आत्मा को निरखने परखने का एक महान् उपाय है। नाम से स्पष्ट विदित होता है कि इसमें आवश्यकीय विषयों का संग्रह है। साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका इस चतुर्विध संघ द्वारा समाचरणीय नित्य कर्त्तव्य कर्म का स्वरूप आवश्यकसूत्र में प्रतिपादित है। इस सूत्र में जीवनव्यवहार में जिन दोषों की उत्पत्ति होने की संभावना है, उनका संक्षिप्त कथन, सभी आसानी से समझ सकें ऐसी खूबी से किया है लेकिन श्रमणसूत्र के विषय में कुछ विचारणीय है। यथा -
शंका (१) - श्रमण नाम साधु का है, इसलिए श्रमणसूत्र साधु को ही पढ़ना उचित है या श्रावक को भी?
समाधान (१) - श्रमण साधु का ही नाम है, ऐसा संकुचित अर्थ शास्त्रसम्मत नहीं है। व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र २०वें शतक के आठवें उद्देशक में कहा है - 'तित्थं पुण चाउव्वण्णाइण्णे समणसंघे, तं जहा - समणा, समणीओ, सावगा, सावियाओ।' अर्थात् साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका, इन चारों को श्रमणसंघ कहते हैं। यद्यपि व्यवहार में श्रमण साधु का ही नाम है, तथापि भगवान् ने तो चारों तीर्थों को ही श्रमणसंघ के रूप में कहा है। इस आप्तवाक्य को प्रत्येक मुमुक्षु को मानना चाहिए।
शंका (२) -'श्रमणसूत्र में साधु के आचार का ही कथन है, इसलिए साधु को ही पढ़ना उचित है, श्रावक के लिए उसका क्या उपयोग है ?
समाधान (२) - श्रावक कृत अनेक धर्मक्रियाओं में श्रमणसूत्र के पाठ परम उपयोगी होते हैं। उदाहरण के लिए (१) जब श्रावक पौषधव्रत में या संवर में निद्राग्रस्त होते हैं, तब निद्रा में लगे हुए दोषों से निवृत्त होने के लिए प्रथम मार्गशुद्धि (इरियावहियं का पाठ), कायोत्सर्ग (तस्स उत्तरी) का पाठ बोलने के बाद दो लोगस्स के पाठ कायोत्सर्ग करके प्रकट में एक लोगस्स कहे, इसके बाद श्रमणसूत्र का प्रथम पाठ "इच्छामि पडिक्कामिउं पगामसिज्जाए" का पाठ कहना चाहिए। निद्रा के दोषों से निवृत्त होने का अन्य कोई पाठ नहीं है। .
(२) एकादशम (ग्यारहवीं) पडिमाधारी श्रावक भिक्षोपजीवी ही होते हैं तथा कई स्थानों पर दयावत के पालन करने वाले (दशवें व्रत के धारक) श्रावक भी गोचरी करते हैं। उसमें लगे हुए दोषों की निवृत्ति करने के लिए दूसरा पाठ "पडिक्कमामि गोयरग्गचरिया" का पाठ कहना पड़ता है।
(३) श्री उत्तराध्ययनसूत्र के २१वें अध्ययन में कहा है, - "निग्गंथे पावयणे सावए से वि कोविए" अर्थात् पालित श्रावक निर्ग्रन्थप्रवचन (शास्त्र) में कोविद (पण्डित) था, इस पाठ से श्रावक और २२वें अध्ययन में "सीलवंता बहुस्सुया" अर्थात् दीक्षा लेने के समय श्री राजमतीजी बहुत सूत्र पढ़ी हुई थीं, इससे श्राविका शास्त्र की पाठिका सिद्ध होती है। इस प्रकार उन्होंने सामायिक, पौषधव्रत में मुहपत्ति तथा वस्त्र, पूंजनी आदि का प्रतिलेखन नहीं किया हो तो उस दोष की निवृत्ति करने के लिए तीसरा पाठ "पडिकमामि चउकालं सज्झायस्स अकरणयाए" को कहना चाहिए।
(४) चौथे पाठ में एक बोल से लगाकर तेतीस बोल तक कहे हैं। वे सब ही ज्ञेय (जानने योग्य) हैं। कुछ हेय (छोड़ने योग्य) और कुछ उपादेय (स्वीकारने योग्य) पदार्थों के दर्शक हैं। प्रत्येक कार्य बड़े उपयोगी हैं। अतः उनका ज्ञान भी श्रावकों के लिए आवश्यक है।
[१५]