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जाना सबसे बड़ी भूल है और यही भूल आगे जाकर जीवन में शूल बन जाती है।
प्रतिक्रमण क्या है ? आत्मा के साथ इसका क्या सम्बन्ध है ? इस विषय में शिष्य प्रश्र करता है - प्र० - पडिक्कमणेणं भंते! जीवे किं जणयइ ? उ० - पडिक्कमणेणं वयछिद्दाणि पिहेइ पिहियवयछिद्दे पुण जीवे निरुद्धासवे, असबलचरिते अटठ्सु
पयवणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए बिहरइ॥
भगवन् ! प्रतिक्रमण करके आत्मा कौन से विशिष्ट गुण को प्राप्त करता है ? शिष्य के मन की जिज्ञासा का समाधान करते हुए भगवान् फरमाते हैं - प्रतिक्रमण द्वारा साधक व्रत के छिद्रों को आच्छादित (बन्द) करता है। प्रमादवश व्रत में जो स्खलन हो जाता है, उसे प्रतिक्रमण के द्वारा दूर करता है। शुद्धव्रतधारी जीव आश्रवों को रोककर शवलादि दोष रहित शुद्ध संयम वाला होकर आठ प्रवचनमाताओं में सावधान होता है और संयम में तल्लीन रहता हुआ समाधि-पूर्वक अपनी इन्द्रियों को सन्मार्गगामी बनाकर संयम-मार्ग में विचरण करता है।
काल की दृष्टि से प्रतिक्रमण के पांच प्रकार होते हैं - (१) दैवसिक, (२) रात्रिक, (३) पाक्षिक, (४) चातुर्मासिक और (५) सांवत्सरिक।
१. दैवसिक - दिन के अन्त में किया जाने वाला प्रतिक्रमण दैवसिक है।
२. रात्रिक - रात्रि के अन्त में किया जाने वाला प्रतिक्रमण अर्थात् रात्रि में लगे हुए दोषों की आलोचना
करना।
३. पाक्षिक - पन्द्रह दिन के अन्त में पापों की आलोचना करना।
४. चातुर्मासिक - चार महीने के बाद कार्तिकी पूर्णिमा, फाल्गुनी पूर्णिमा एवं आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन चार महीने के अन्तर्गत लगे दोषों का प्रतिक्रमण करना।
५. सांवत्सरिक - आषाढ़ी पूर्णिमा से उनपचासवें या पचासवें दिन वर्ष भर में लगे हुए दोषों की आलोचना करना।
साधना के क्षेत्र में मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग, ये पांच दोष माने गए हैं। साधक प्रतिदिन प्रतिक्रमण के समय अपने जीवन का अन्तर्निरीक्षण करता हुआ यह देखता है कि वह कहीं सम्यक्त्व के प्रशस्त पथ को छोड़कर मिथ्यात्व के कंटीले पथ की तरफ तो नहीं बढ़ रहा है ? व्रत के वास्तविक स्वरूप को भूलकर अव्रत की ओर तो नहीं जा रहा है ? अप्रमत्तता के शान्त वातावरण को छोड़कर मन कहीं प्रमाद के तनावपूर्ण वातावरण में तो नहीं फंस रहा है ? अकषाय के सुरभित बाग को छोड़कर कषाय के दुर्गन्ध से युक्त बाड़े की ओर तो नहीं गया है ? योगों की प्रवृत्ति शुभ योग को छोड़कर अशुभयोग्य में तो नहीं लगी ? यदि मैं मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग में गया हूँ, तो मुझे पुनः सम्यक्त्व, व्रत, अकषायता, अप्रमाद और शुभ योग में प्रवृत्त होना चाहिए।
प्रतिक्रमण साधकजीवन की एक अपूर्व कला है तथा जैन साधना का प्राणत्व है। ऐसी कोई भी क्रिया नहीं जिसमें प्रमादवश दोष न लग सके। उन दोषों से निवृत्ति हेतु प्रतिक्रमण करना चाहिए। प्रतिक्रमण में साधक अपने
१. उत्तराध्ययनसूत्र अ. २९ सूत्र १२
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