Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 14
________________ प्रभो। चतुर्विंशति-स्तव का जीवन में क्या स्थान है तथा जीवन में स्तवन-स्तुति का प्रकाश प्राप्त होता है, तब आत्मा कौन से आध्यात्मिक गुण को प्राप्त करती है ? हे गौतम! प्रार्थना का, स्तुति का प्रकाश आत्मा के दर्शन-ज्ञान को विशुद्ध बनाता है। मिथ्यात्व का अंधकार दर्शनगुण की प्रतिभा को नष्ट कर देता है, किन्तु बीतराग की स्तुति मिथ्यात्व से हटाकर साधक को सम्यक्त्व की ओर ले जाती है। ३. वन्दना आवश्यक सूत्र का तीसरा अध्ययन वन्दना है। आलोचना क्षेत्र में प्रवेश करते समय गुरुभक्ति एवं नम्रता का होना आवश्यक है। ज्ञातासूत्र में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्रोत्तर आया है। जीवन का पारखी सेठ सुदर्शन मुनि थावच्चापुत्र से प्रश्न करता है कि जैनधर्म का, जैनदर्शन का मूल क्या है ? - 'किं मूलए धम्मे ?' उस महामहिम अनगार ने क्षमा आदि गुणों को धर्म का मूल न बताकर 'विनय' को ही धर्म का मूल कहा है - 'सुदंसणा! विणयमले धम्मे।' विनय जीवनप्रासाद की नींव की ईंट रूप है। विनय एक वशीकरण मंत्र है। विनय से, नम्रता से देवता भी वश में हो जाते हैं तथा शत्रु, मित्र बन जाते हैं। इसलिए साधक तीर्थंकर की स्तुति के बाद गुरुदेव को वन्दन करते हैं। इस विषय में शिष्य प्रश्र करता है - प्र० - वन्दणएणं भंते। जीवे किं जणयड ? उ० - वन्दणएणं नीयागोयं कम्म खवेइ। उच्चागोयं कम्मं निबन्धइ। सोहग्गं च णं अप्पडिहयं आणाफलं निव्वत्तेइ, दाहिणभावं च णं जणयइ। भगवन् ! वन्दन करने से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है ? गौतम! वन्दना द्वारा आत्मा नीचगोत्ररूप बंधे हुए कर्म का क्षय करता है और उच्चगोत्र कर्म को बांधता है तथा ऐसा सौभाग्य प्राप्त करता है कि उसकी आज्ञा निष्फल नहीं जाती है अर्थात् उसकी वाणी में इतना निखार आ जाता है कि सभी उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। साथ ही वन्दना से आत्मा को दाक्षिण्यभाव प्राप्त होता है। ४. प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण आवश्यकसूत्र का चतुर्थ अध्ययन है। व्रतों में लगे अतिचारों की शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण की आवश्यकता है। प्रतिदिन यथायमय यह चिन्तन करना कि आज आत्मा व्रत से अव्रत में कितना गया ? कषाय की ज्वाला कितनी बार प्रज्वलित हुई? और हुई तो निमित्त क्या बना? वह कषाय अनन्तानुबन्धी था अथवा अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी या संज्वलन ? क्रोध के आवेश में जो शब्द कहे, वे उचित थे या अनुचित ? इस प्रकार सूक्ष्म रूप से चिन्तन-मनन करके इसकी शुद्धि करना ही प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण में साधक अपनी भूलों का स्मरण करता है और उसके लिए पश्चाताप के आँसु बहाता है। पाप की कालिमा को नदी का सैकड़ों मन पानी नहीं धो सकता, किन्तु पश्चाताप के आँसु की दो बूंदें उसे एक मिनट में धो देती हैं। एक विचारक ने कहा है - जो भूल करता है वह मानव है, लेकिन उस भूल पर अहंकार करना राक्षस का काम है। भूल होना स्वाभाविक है, पर भूल पर गौरव अनुभव करना अर्थात् भूल को फूल मानकर बैठ १. उत्तराध्ययनसूत्र अ. २९ सूत्र ११ [११]

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 204