Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha Publisher: Agam Prakashan SamitiPage 12
________________ अपनी ओर से............. [प्रथम संस्करण से ] विराट् विश्व के समस्त प्राणी सुख चाहते हैं। आचारांग सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर ने कहा है - "सव्वे पाणा ...... सुहसाया दुक्खपडिकूला" समस्त प्राणी चाहे वह कीड़ी है या कुंजर, दरिद्रतम मानव है अथवा स्वर्गाधिपति इन्द्र, सभी सुख चाहते हैं। दुःख कोई नहीं चाहता। 'सुक्खकामानि भूतानि" - प्राणिमात्र की कामना है कि सुख मिले। लेकिन प्रश्न यह है कि सुख मिले कैसे? वह कोई ऐसा फल तो है नहीं जो किसी वृक्ष पर लटक रहा हो, जिसे तोड़ लिया जाय अथवा कहीं से खरीद लिया जाये! यदि ऐसा होता तो जितने भी धनिक हैं, वे कब के उसे खरीद लेते। फिर बेचारे गरीबों को तो सुख नसीब ही नहीं होता! पर ऐसा नहीं है। सुख अपने ही भीतर से प्रकट होता है। आत्मा में ही सुख-दुःख के बीज छिपे हुए हैं। उस सुख को प्राप्त करने के लिए जो क्रिया अनिवार्य है - उस क्रिया का चिन्तन, मनन करके उसका अमल करना चाहिए। जीवन की वह क्रिया, जिसके अभाव में हम आत्मिक सुखलाभ के पथ पर आगे नहीं बढ़ सकते, वही आवश्यक कहलाती है। जीवित रहने के लिए जिस प्रकार श्वास लेना जरूरी है, उसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में जीवन की पवित्रता के लिए, जो क्रिया अथवा साधना जरूरी है, अनिवार्य है उसे ही आगम में 'आवश्यक' की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। आवश्यक प्रतिक्रमण आदि अवश्य करणीय कर्त्तव्य। प्रतिक्रमण का शाब्दिक अर्थ है - पापों से निवृत्त होना। आत्मा की जो वृत्ति अशुभ हो चुकी है, उस वृत्ति को शुभ स्थिति में लाना प्रतिक्रमण है। अथवा प्रतिक्रमण का अर्थ है - अतीत के जीवन का प्रामाणिकता-पूर्वक सूक्ष्म निरीक्षण। मन की छोटी-बड़ी सभी विकृतियाँ, जो किसी न किसी रूप में पाप की श्रेणी में आती हैं, उनके प्रतिकार के लिए जैन परम्परा में प्रतिक्रमण एक महौषध है। तन की विकृति जैसे रोग है, वैसे ही क्रोध, मान, माया, लोभ आदि मन की विकृतियाँ मन के रोग हैं। इसकी चिकित्सा भी आवश्यक है। तन का रोग अधिक से अधिक एक जन्म तक ही पीड़ा दे सकता है, किन्तु मन का रोग एक बार प्रारम्भ होने के बाद, यदि व्यक्ति असावधान रहा तो हजारों ही नहीं, लाखों जन्मों तक परेशान करता है। भारतीय पौराणिक साहित्य की हजारों जैन, बौद्ध एवं वैदिक कथाएँ इसकी साक्षी हैं। अतः प्रतिक्रमण के द्वारा मानसिक विकृतियों का तत्काल परिमार्जन कर लेना परमावश्यक है। अनुयोगद्वार में आवश्यक के आठ पर्यायवाची नाम दिये हैं - आवश्यक, अवश्यकरणीय, ध्रुवनिग्रह, विशोधि, अध्ययनषट्कवर्ग, न्याय, आराधना और मार्ग। १. आचारांगसूत्र, १/२/३ २. उदान २/३ ३. आवस्सयं अवस्सकरणिज, धुवनिग्गहो विसोही य। अज्झयण-छक्कवग्गो, नाओ आराहणा मग्गो॥ [९]Page Navigation
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