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यथासंभव एक भी जगह जोड़ लगाना न पड़े ऐसा ही वस्त्र लेना चाहिए। आवश्यक होने पर भी तीन से घर अधिक जोड़ नहीं लगाना चाहिए, तीन जोड़ से साधु-साध्वी दोनों का निर्वाह हो सकता है।
यदि साध्वी को चार हाथ विस्तार की चद्दर की जरूरत हो और एक हाथ के विस्तार का कपड़ा मिले तो तीन जोड़ से पूरी हो सकती है। कभी आवश्यकता से कम लम्बे टुकड़े मिले तो भी तीन जोड़ से साधु-साध्वी दोनों से का निर्वाह हो सकता है।
पूर्वोक्त सूत्र ५०-५१ में 'गंठियं करेइ' का प्रयोग है। इसमें फटे हुए वस्त्र को गाँठ देकर जोड़ने संबंधी प्रायश्चित्त है। सूत्र ५२-५३-५४ में 'गंठेइ' क्रिया का प्रयोग है। इसमें एक समान भिन्न-भिन्न वस्त्र खंड़ों को घर सिलाई करके जोड़ने का प्रायश्चित्त है। सत्र ५५ में 'गहेइ' क्रिया का प्रयोग है। इसमें विजातीय वस्त्र खंडों को जोड़ने का प्रायश्चित्त है। इस प्रकार इन सूत्रों में फटे वस्त्रों को अथवा वस्त्र खंड़ों को जोड़ने का प्रायश्चित्त है। हर किन्तु एक समान वस्त्र खंडों को जोड़ने का प्रायश्चित्त नहीं है और वस्त्र जैसे धागे से सिलाई करने का प्रायश्चित्त नहीं है क्योंकि यह विधि है जबकि असमान वस्त्र खंड़ों को जोड़ने का प्रायश्चित्त है और वस्त्र से लेकर भिन्न प्रकार के धागे से सिलाई करने का प्रायश्चित्त है, क्योंकि यह अविधि है। अविधि से जोड़ने का और अविधि से सिलाई करने का प्रायश्चित्त विवेचन सूत्र ४९ के समान है।
विजातीय वस्त्र का अर्थ यहाँ वस्त्रों की अनेक जातियों से है। यथा-ऊनी, सूती, सणी, रेशमी आदि।
ऊनी और सूती वस्त्रों की अनेकानेक जातियाँ हैं। ऊनी वस्त्र-भेड़, बकरी, ऊँट आदि की ऊन से बने हुए कम्बल आदि वस्त्र। सूती वस्त्र-मलमल, लट्ठा, रेजा आदि विविध प्रकार के वस्त्र।
रंग भेद से भी वस्त्रों के और धागों के अनेक प्रकार हैं। अतः भिक्षु वस्त्र खंड़ों को जोड़ते या जुड़वाते समय ऐसा विवेक रखे कि जुड़े हुए वस्त्र खंड और सिलाई के धागे भिन्न-भिन्न न दिखे।
वस्त्र के अधिक जोड़- यहाँ सूत्र ५०-५१-५२-५३-५४-५५ में “गहेई" (गंठेई) विषय का सम्बन्ध अइरेग गहियं से जोड़ा गया है और कहा है कि साधु-साध्वियाँ यदि अधिक जोड़ का, अधिक गाँठ का वस्त्र डेढ़ मास से अधिक रखें तो वे प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। जिस प्रकार पात्र के सूत्रों में "अधिक बन्धन के पात्र को" डेढ़ महीने से अधिक रखने सम्बन्धी विवेचन किया गया है। उसी तरह यहाँ भी समझना चाहिए।
यदि तीन जोड़ रूपी मर्यादा उपरान्त एक भी जोड़ किया हो तो सूत्रपोरिसी और अर्थपोरिसी करने के बाद अन्य वस्त्र को गवेषणा कर लेना चाहिए। सूत्र-अर्थ पोरिसी का आशय है-स्वाध्याय व ध्यान करने की पोरिसी दो तीन जोड़ किये हो तो केवल सूत्रपोरिसी करके वस्त्र की गवेषणा करनी चाहिए और तीन से ज्यादा जोड़ किये हो तो सूत्र व अर्थ दोनों पोरिसी न करे, पहले वस्त्र की गवेषणा करें।
पूर्वोक्त पात्र विषयक ६ सूत्रों का और वस्त्र विषयक १० सूत्रों का सार यह है कि वस्त्र के थेगली परे लगाना, गाँठ देना, वस्त्रखण्ड जोड़ना तथा पात्र के टिकड़ी लगाना, बन्धन लगाना आदि कार्य साधु-साध्वियों को यथासम्भव नहीं करने चाहिए। वस्त्र-पात्र विषयक उक्त कार्य करने यदि आवश्यक हो तो उन्हें तीन से अधिक नहीं करने चाहिए। ये कार्य तीन से अधिक बार करने जैसी स्थिति यदि हो गई हो तो सूत्रपोरिसी, अर्थपोरिसी न करके भी उस काल में नये वस्त्र की याचना कर लेनी चाहिए। परन्तु इसमें डेढ़ मास की मर्यादा का उल्लंघन नहीं होना चाहिए।
| निशीथ सूत्र
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Nishith Sutra