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घर 69. The ascetic who consumes the “Chaikitash-food" or supports the ones who
consumes so. 70. The ascetic who consumes the “Kalpa-food" or supports the ones who consumes so. 71. The ascetic who consumes the "Maan-food" or supports the ones who consumes so. 72. The ascetic who consumes the "Maya-food" or supports the ones who consumes so. 73. The ascetic who consumes the “Loabha-food or supports the ones who consumes so. 74. The ascetic who consumes the "the Vidya-food" or supports the ones who consumes so. 75. The ascetic who consumes the "Mantra-food" or supports the ones who consumesso. 76. The ascetic who consumes the “Churan-food" or supports the ones who consumesso. 77. The ascetic who consumes the "Yoga-food" or supports the ones who consumes so. 78. The ascetic who consumes the “Antardhyana-food" (taking) food invisible) or
supports the ones who consumes so. इन 78 सूत्रोक्त स्थानों के सेवन करने वाले को लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है। In applying the above mentioned 78 sutras one gets a laghu-chaumasi expiation.
विवेचन-अनेक दूषित प्रवृत्तियों को करके भिक्षु का आहार प्राप्त करना, उत्पादन दोष कहा जाता है। 3 पिंडनियुक्ति में इन दोषों की संख्या सोलह कही है। यहाँ उनमें से 14 दोषों को प्रायश्चित्त कहा गया है तथा 3 'अंतर्धानपिंड' का प्रायश्चित्त अधिक कहा गया है जिसका समावेश जोगपिंड में हो सकता है।
धातृपिंड-धाय के कार्य पाँच प्रकार के होते हैं-बालक को दूध पिलाना, स्नान कराना, वस्त्राभूषण र न पहनाना, भोजन कराना, गोद में या काख में रखना। ये कार्य करके गृहस्थ से आहार प्राप्त करना 'धातृपिंड 'दोष से कहा जाता है।
दूतीपिंड-दूती के समान इधर-उधर की बातें एक-दूसरे को कहकर अथवा स्वजन सम्बन्धियों के समाचारों का आदान-प्रदान करके आहारादि लेना।
आजीविकपिंड-जाति-कुल आदि का परिचय बताकर या अपने गुण कहकर आहार प्राप्त करना।।
वनीपकपिंड-दान के फल का कथन करते हुए अथवा दाता को अनेक आशीर्वचन कहते हुए भिखारी की तरह दीनतापूर्वक भिक्षा प्राप्त करना।
क्रोधपिंड-कुपित होकर आहारादि लेना या आहारादि न देने पर श्राप देने का भय दिखाकर आहारादि लेना।
मानपिंड-भिक्षा न देने पर कहना कि “मैं भिक्षा लेकर रहूँगा।" तदन्तर बुद्धि प्रयोग करके घर के अन्य सदस्य से भिक्षा प्राप्त करना।
मायापिंड-रूप परिवर्तन करके छलपूर्वक भिक्षा प्राप्त करना।
लोभपिंड-इच्छित वस्तु मिलने पर विवेक न रखते हुए अति मात्रा में लेना या इच्छित वस्तु न मिले वहाँ तक घूमते रहना, अन्य कल्पनीय वस्तु भी नहीं लेना।
चिकित्सापिंड-गृहस्थ के पूछने पर या बिना पूछे ही किसी रोग के विषय में औषध आदि के प्रयोग बताकर भिक्षा प्राप्त करना अथवा मेरा अमुक रोग अमुक दवा या वैद्य से ठीक हुआ था ऐसा कहकर भिक्षा प्राप्त करना चिकित्सापिंड है।
निशीथ सूत्र
(240)
Nishith Sutra