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है 13. जो भिक्षु गाथापति कुल में आहार के लिए प्रवेश करने पर गृहस्थ के मना करने के बाद भी पुनः प्रल र उसी घर में प्रवेश करता है अथवा प्रवेश करने वाले का समर्थन करता है। (उसे लघुमासिक 38 प्रायश्चित्त आता है।) 13. The ascetic who enters into the same house of the housholder clan for seeking
alms even after having been refused by the housholder to enter in it or support the
ones who enters so, a laghu-masik expiation costs him. संखडीगमनप्रायश्चित्त
THE EXPIATION OF GOING FOR SAKHANDI 3 14. जे भिक्खू संखडि-पलोयणाए असणं वा पाणं वा खाइमंवा साइमं वा पडिगाहेइ पडिगाहेंतं वा
साइज्जइ। 14. जो भिक्षु जीमनवार के लिए बनी खाद्य सामग्री को देखते हुए अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य ग्रहण
करता है अथवा ग्रहण करने वाले का समर्थन करता है। (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।)
विवेचन-रसोईघर में पहुँचकर चावल आदि वस्तुओं को देखकर “यह दो या इसमें से दो" इस परे प्रकार कहना संखडिप्रलोकन पूर्वक आहार ग्रहण करना कहा गया है। 14. The ascetic who accepts food, water, sweet and tasty idems etc seeing the eateries
are eatables prepared for feast, or supports the ones who accepts so, a laghu-masik expiation comes to him.
Comments-Arriving in the kitchen and seeing the rice etc., “Give me that and give me from it” says so, has been said to take “Skhandpralokan type”.
अभिहत आहार ग्रहण प्रायश्चित्त ' R THE EXPIATION OF ACCEPTING THE "ABHIHIT" FOOD
15. जे भिक्खू गाहावइकुलं पिंडवायपडियाएअणपविढे समाणे परं ति-घरंतराओ असणं वा, तट पाणंवा,खाइमंवा, साइमंवा अभिहडं आहटुंदिज्जमाणं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ। 15. जो भिक्षु गाथापति कुल में आहार के लिए प्रवेश करके तीन घर यानि तीन कमरे से अधिक दूर
से सामने लाकर देते हुए अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य को ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करने वाले का समर्थन करता है। (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।) The ascetic who accepts the food, water, sweet and tasty items etc entering into the house of a housholder clan brought from the distance of three houses or supports the ones who accepts so, a laghu-masik atonement comes to him.
विवेचन-जिस कमरे से आहारादि ग्रहण करना हो, उसी में या उसके बाहर खड़ा रहकर ही आहारादि ले ग्रहण करना चाहिए। किन्तु दशवैकालिक सूत्र अध्ययन उद्देशक 1 में कहा है कि “कुलस्स भूमिं जाणित्ता, मियं
भूमिं परक्कमें" अर्थात् जिन कुलों में साधु को जितनी सीमा तक प्रवेश अनुज्ञात हो उस मर्यादित स्थान तक ही
तृतीय उद्देशक
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Third Lesson