Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम शतक : उद्देशक-१]
[१७ गोयमा! चलमाणे चलिते १ उदीरिज्जमाणे उदीरिते २, वेइज्जमाणे वेइए ३, पहिज्जमाणे पहीणे ४, एएणं चत्तारि पदा एगट्ठा नाणाघोसा नाणावंजणा उप्पन्नपक्खस्स।छिज्जमाणे छिन्ने १, भिजमाणे भिन्ने २, डज्झमाणे डड्ढे ३, मिज्जमाणे मडे ४, निजरिज्जमाणे निज्जिण्णे ५, एए णं पंच पदा नाणट्ठा नाणाघोसा नाणावंजणा विगतपक्खस्स।
[२ प्र.] भगवन्! क्या ये नौ पद, नाना-घोष और नाना-व्यञ्जनों वाले एकार्थक हैं? अथवा नाना-घोष वाले और नाना-व्यञ्जनों वाले भिन्नार्थक पद हैं ?
[२ उ.] हे गौतम! १. जो चल रहा है, वह चला; २. जो उदीरा जा रहा है, वह उदीर्ण हुआ; ३. जो वेदा जा रहा है वह वेदा गया;४. और जो गिर (नष्ट हो) रहा है, वह गिरा (नष्ट हुआ), ये चारों पद उत्पन्न पक्ष की अपेक्षा से एकार्थक, नाना-घोष वाले और नाना-व्यञ्जनों वाले हैं तथा १. जो छेदा जा रहा है, वह छिन्न हुआ, २. जो भेदा जा रहा है, वह भिन्न हुआ, ३. जो दग्ध हो रहा है, वह दग्ध हुआ; ४. जो मर रहा है, वह मरा; और ५. जो निर्जीर्ण किया जा रहा है, वह निर्जीर्ण हुआ, ये पांच पद विगतपक्ष की अपेक्षा से नाना अर्थ वाले, नाना-घोष वाले और नाना-व्यञ्जनों वाले हैं।
विवेचन-चलन आदि से सम्बन्धित नौ प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत पंचम सूत्र में दो विभाग हैंप्रथम विभाग में कर्मबन्ध के नाश होने की क्रमशः प्रक्रिया से सम्बन्धित ९ प्रश्न और उनके उत्तर हैं: दसरे विभाग में इन्हीं ९ कर्मबन्धनाशप्रक्रिया के एकार्थक या नानार्थक होने के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर हैं।
विशेषावश्यकभाष्य में श्रावस्ती में प्रादुर्भूत 'बहुरत' नामक निह्नवदर्शन के प्रवर्तक जमालि का वर्णन है। उसका मन्तव्य था कि जो कार्य किया जा रहा है, उसे सम्पूर्ण न होने तक 'किया गया', ऐसा कहना मिथ्या है। इस प्रकार के प्रचलित मत को लेकर श्री गौतमस्वामी द्वारा ये प्रश्न समाधानार्थ प्रस्तुत किए गए।
जो क्रिया प्रथम समय में हुई है, उसने भी कुछ कार्य किया है, निश्चयनय की अपेक्षा से ऐसा मानना उचिंत है।
चलन-कर्मदल का उदयावलिका के लिए चलना।
उदीरणा-कर्मों की स्थिति परिपक्व होने पर उदय में आने से पहले ही अध्यवसाय विशेष से उन कर्मों को उदयावलिका में खींच लाना।
वेदना-उदयावलिका में आए हुए कर्मों के फल का अनुभव करना। प्रहाण-आत्मप्रदेशों के साथ एकमेक हुए कर्मों का हटना-गिरना। छेदन-कर्म की दीर्घकालिक स्थिति को अपवर्तना द्वारा अल्पकालिक स्थिति में करना।
भेदन-बद्ध कर्म के तीव्र रस को अपवर्तनाकरण द्वारा मन्द करना अथवा उद्वर्तनाकरण द्वारा मन्द रस को तीव्र करना। १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति पत्रांक १४, १५ का सारांश २. विशेषावश्यकभाष्य गा. २३०६, २३०७ (विशेष चर्चा जमालि प्रसंग में देखें)