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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (निरर्थक) हैं।' वे इतने उदार थे कि उनके घरों में दरवाजों के पीछे रहने वाली अर्गला (आगल भोगल) सदैव ऊँची रहती थी। उनके घर के द्वार (याचकों के लिए) सदा खुले रहते थे। उनका अन्त:पुर तथा परगृह में प्रवेश (अतिधार्मिक होने से) लोकप्रीतिकर (विश्वसनीय) होता था। वे शीलव्रत (शिक्षाव्रत), गुणव्रत, विरमणव्रत (अणुव्रत), प्रत्याख्यान (त्याग-नियम), पौषधोपवास आदि का सम्यक् आचरण करते थे, तथा चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा, इन पर्वतिथियों में (प्रतिमास छह) प्रतिपूर्ण पौषध का सम्यक् अनुपालन (आचरण) करते थे। वे श्रमण निर्ग्रन्थों को उनके कल्पानुसार प्रासुक (अचित्त) और एषणीय (एषणा दोषों के रहित) अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, पीठ (चौकी या बाजोट) फलक (पट्टा या तख्त),शय्या, संस्तारक, औषध और भेषज आदि से प्रतिलाभित करते (देते) थे; और यथाप्रतिगृहीत (अपनी शक्ति के अनुसार ग्रहण किये हुए) तपःकर्मों से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते (जीवनयापन करते) थे।
विवेचन—तुंगिका नगरी के श्रमणोपासकों का जीवन—प्रस्तुत दो सूत्रों (१० और ११) में से प्रथम में श्रमण भगवान् महावीर का राजगृह से अन्यत्र विहार का सूचक है, और द्वितीय में भगवान् महावीर के तुंगिकानगरी निवासी श्रमणोपासकों का जीवन आर्थिक, सामाजिक, अध्यात्मिक, धार्मिक आदि विविध पहलुओं से चित्रित किया गया है।
कठिन शब्दों के दूसरे अर्थ–'वित्थिण्णविपुल भवण-सयणासण-जाणवाहणाइण्णे-जिनके घर विशाल और ऊँचे थे, तथा जिनके शयन, आसन, यान और वाहन प्रचुर थे। विच्छडिया विउलभत्तपाणा—उनके यहाँ बहुत-सा भात-पानी (याचकों को देने के लिए) छोड़ा जाता था। अथवा जिनके यहाँ अनेक लोग भोजन करते थे, इसलिए बहुत-सा भात-पानी बचता था। अथवा जिनके यहाँ विविध प्रकार का प्रचुर खान-पान होता था। असहेज्ज-देवासुर-नाग-सुवण्णजक्ख-रक्खस-किन्नर-किंपुरिस-गरुल-गंधव्व-महोरगाईएहिं—आपत्ति में भी देवादिगणों की सहायता से निरपेक्ष थे, अर्थात् 'स्वकृत कर्म स्वयं ही भोगना होगा', इस तत्त्व पर स्थित होने से वे अदीनमनोवृत्ति वाले थे। अथवा परपाषण्डियों द्वारा आक्षेपादि होने पर वे सम्यक्त्व की रक्षा के लिए दूसरों की सहायता नहीं लेते थे, क्योंकि वे स्वयं उनके आक्षेपादि निवारण में समर्थ थे। सुवण्ण-अच्छे वर्ण वाले ज्योतिष्क देव। गरुल–गरुड़-सुपर्णकुमार।अट्ठिमिंजपेमाणुरागरत्ता-उनकी हड्डियाँ
और उनमें रहा हुआ धातु-मिज्जा, ये सर्वज्ञप्रवचनों पर प्रतीतिरूप कसुम्बे के रंग से रंगे हुए थे। ऊसिअफलिआ—अत्यन्त उदारता से अतिशय दान देने के कारण घर में भिक्षुकों के निराबाध प्रवेश के लिए जिन्होंने दरवाजे की अर्गला हटा दी थी। चियत्तंतेउर-घरप्पवेसा–जिनके अन्तःपुर या घर में कोई सत्पुरुष प्रवेश करे तो उन्हें अप्रीति नहीं होती थी, क्योंकि उन्हें ईर्ष्या नहीं होती। अथवा जिन्होंने दूसरों के अन्तःपुर या घर में प्रवेश करना छोड़ दिया था। अथवा वे किसी के घर में या अन्तःपुर में प्रवेश करें तो अतीव धर्मनिष्ठ होने के कारण उसे प्रसन्नता होती थी, शंका नहीं। उहिट्ठा-अमावस्या (उद्दिष्टा)। अहिकरण-क्रिया का साधन।
१. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १३५-१३६