Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 502
________________ पंचम शतक : उद्देशक-५] [४६१ ६.[एवं चेव तित्थयरमायरो, पियरो, पढमा सिस्सिणीओ, चक्कवट्टिमायरो, इत्थिरयणं, बलदेवा, वासुदेवा, वासुदेवमायरो, पियरो, एएसिं पडिसत्तू जहा समवाए णामपरिवाडीए तहा णेयव्वा।] सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ। ॥ पंचम सए : पंचमो उद्देसओ समत्तो॥ [६] [इसी तरह तीर्थंकरों की माता, पिता, प्रथम शिष्याएँ, चक्रवर्तियों की माताएँ, स्त्रीरत्न, बलदेव, वासुदेव, वासुदेवों के माता-पिता, प्रतिवासुदेव आदि का कथन जिस प्रकार 'समवायांगसूत्र' के नाम की परिपाटी में किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए।] . 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर यावत् विचरने लगे। विवेचन–अवसर्पिणीकाल में हुए कुलकर-तीर्थकरादि की संख्या का निरूपण प्रस्तुत दो सूत्रों में भरतक्षेत्र में हुए कुलकर तथा तीर्थंकरमाता आदि की संख्या का प्रतिपादन समवायांगसूत्र के अतिदेशपूर्वक किया गया है। कुलकर—अपने-अपने युग में जो मानवकुलों की मर्यादा निर्धारित करते हैं, वे कुलकर कहलाते हैं। वर्तमान अवसर्पिणीकाल में हुए ७ कुलकर ये हैं—(१) विमलवाहन (२) चक्षुषमान (३) यशस्वान् (४) अभिचन्द्र (५) प्रसेनजित (६) मरुदेव और (७) नाभि। इनकी भार्याओं के नाम क्रमशः ये हैं—(१) चन्द्रयशा, (२) चन्द्रकान्ता, (३) सुरूपा, (४) प्रतिरूपा, (५) चक्षुष्कान्ता, (६) श्रीकान्ता और (७) मरुदेवी। चौबीस तीर्थंकरों के नाम (१) श्रीऋषभदेव (आदिनाथ) स्वामी, (२) श्रीअजितनाथ स्वामी (३) श्रीसम्भवनाथस्वामी, (४) श्रीअभिनन्दनस्वामी, (५) श्रीसुमतिनाथस्वामी, (६) श्रीपद्मप्रभस्वामी, (७) श्रीसुपार्श्वनाथस्वामी (८) श्रीचन्द्रप्रभस्वामी, (९) श्रीसुविधिनाथस्वामी (पुष्पदन्तस्वामी), (१०) श्रीशीतलनाथस्वामी, (११) श्रीश्रेयांसनाथस्वामी, (१२) श्रीवासुपूज्यस्वामी, (१३) श्रीविमलनाथस्वामी, (१४) श्रीअनन्तनाथस्वामी, (१५) श्रीधर्मनाथस्वामी, (१६) श्रीशान्तिनाथस्वामी, (१७) श्रीकुन्थुनाथस्वामी, (१८) श्री अरनाथस्वामी, (१९) श्री मल्लिनाथस्वामी, (२०) श्रीमुनिसुव्रतस्वामी, (२१) श्रीनमिनाथस्वामी (२२) श्री अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) स्वामी, (२३) श्रीपार्श्वनाथस्वामी, और (२४) श्री महावीर (वर्धमान) स्वामी। यह पाठ आगमोदय समिति से प्रकाशित भगवतीसूत्र की अभयदेवसूरीयवृत्ति में नहीं है, वहाँ वृत्तिकार ने इस पाठ का संकेत अवश्य किया है—अथवा इह स्थाने वाचनान्तरे कुलकर-तीर्थंकरादि वक्तव्यता दृश्यते' (अथवा इस स्थान में अन्य वाचना में कुलकर-तीर्थकर आदि की वक्तव्यता दृष्टिगोचर होती है। यही कारण है कि भगवती. टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त खण्ड २, पृ.१९५, तथा भगवती.हिन्दी विवेचनयुक्त भा. २, पृ.८३६ में यह पाठ और इसका अनुवाद दिया गया है। सं.

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